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________________ १७२ समरसिंह. सिद्धसरि तथा पाटण के कई धनी मानी अपने इष्टमित्रों तथा कुटुम्बियों को ले कर भाडू ग्राम में पहुंचे। वहां जा देसलशाहने फलही की पूजा कर चित्त में परम प्रसन्नता प्राप्त की । सहस्रों गवैये और विरदावली कहनेवाले भाट आदि उस जगह एकत्रित हुए जिन के निनाद से आकाश गुंज उठा था। हमारे चरितनायक ने अपने पिताश्री के आदेशानुसार सब याचकों को वस्त्र आदि दे कर संतुष्ट किया । सब लोगोंने भी आदर पूर्वक फलही का पूजन किया । देसलशाह की महिमा सब ओर से सुनाई पड़ती थी । स्वामिवात्सल्य का प्रीति भोजन भी हुआ था । जगह जगह रास और गायन हुए तथा योग्य व्यक्तियों को विपुल द्रव्य पारितोषिक में दिया गया । फिर देसलशाहने फलही को आगे चलने दिया, और आप पीछे पैदल चलने लगे । इस प्रकार देसलशाह अपने घर पहुंचे। फलही जब पाटणनगर के द्वार पर पहुंची तो श्रीसंघने उसे बहुत मोद और परम उत्साह से बधाया। स्वागत की प्रचुर सामग्री प्रस्तुत थी । बालचन्द्र मुनिवर्य से शीघ्र ही श्रेष्ट कर्म कराया था। स्वामी की मूर्ति जो प्रकट हुई थी. ऐसी मालूम देती थी मानो कर्पूर अथवा क्षीरसागर के सार से ही देह बनाई गई होगी। यह भव्य मूर्ति संसार के लोगों पर परम कृपा प्रकट कर रही है - ऐसा भासित होता था। यानंद जो अपूर्व और वास्तव में अ लौकिक था लोगों के उर में समाता नहीं था । उत्साह दर्शकों की पसलिऐं तोड़ डाल रहा था। देशनपुत्र श्रीसमरसिंह का चरित्र देख Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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