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समरसिंह.
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बाघात हुआ है। तीर्थ के अभाव में यह कैसे संभव होगा कि द्रव्यस्तव के अधिकारी श्रावकों को द्रव्यस्तव का आराधन हो । धर्म आराधन के केवल चार रास्ते हैं उनमें से सर्वोत्तम पथ
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सुलतान को दी । सुलतानने कहा, मंत्रीजी, आपने मेरी माता की पुत्रवत् सेवा की है अत: मैं आपको अपना भाई समझता हूँ। मेरी माताने आपकी बहुत तारीफ की है। आपसे भद्र पुरुषसे मिलकर मे अपने आपको अहोभागी समझता हूँ । सुलतान मौजदीनने वस्तुपाल को दिल्ली प्रवेश कराते समय सबसे आगे रखा । वस्तुपाल को ठहराने के लिए पूनड़शाह का भवन ही देवयोगसे निश्चित हुआ । सुलतानने पूनड़शाह को बुलाकर कहा कि ये तुम्हारे साधम्र्मी भाई हैं अतएव इनके भोजन का प्रबंध अपने यहाँ ही करो और भोजन कराके इन्हें मेरे महल में ले आओ । पूनड़शाहसे मिलकर वस्तुपालने बहुत प्रसन्नता प्रकट की ।
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जब वस्तुपाल सुलतान के महल म पहुँचे तो भली प्रकारसे सन्मानित किए गये । सुलतानने विनयपूर्वक आदर किया तथा मधुर वार्तालाप के पश्चात् एक करोड सुवर्ण मुद्राएँ अर्पण कीं । सुलतानने पूछा, भाई, और क्या चाहते हो । मंत्रीश्वरने उत्तर दिया, गुजरात प्रान्त के साथ आप की यावज्जीवन संधि होनी चाहिये और मुझे मम्माण खानमें से केवल पांच बढ़िया पाषाण चाहिये । सुलतानने तुरन्त स्वीकृति दे दी ।
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इस प्रकार ये पांचों फलही प्राप्त कर मंत्रीश्वरने शत्रुंजय तीर्थपर भेज दीं । उस में से एक ऋषभदेव फलही, दूसरी- पुण्डरीक फलही, तीसरी - कपर्दियक्ष की फलही, चतुर्थ चक्रेश्वरी की फलही और पाँचवी तेजलपुर में श्री पार्श्वनाथ की फलही है । मंत्रीवर दिल्ली से लौटकर खंभात पधारे ।
बि. सं. १४०५ में श्रीराजशेखरसूरि रचित प्रबंधकोष ( वस्तुपालप्रबंध ) -से जो हेमचन्द्राचार्य प्रथावली पाटणद्वारा प्रकाशित हुआ है ।
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