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________________ १५६ समरसिंह और जो अब तक उसी रूप में विद्यमान है । मैं चाहता हूँ कि उस मम्माण शैल फलही से आदश्विर भगवान की मूर्ति बनवाई जाय। सूरिजीने देसलशाह आदि के समक्ष ही यह सूचना दी कि यह शत्रुजय तीर्थ की प्रथम यात्रा की थी। सुलतान के आदेश से पूनड़शाहने नागपुर (नागौर ) से शत्रुजय तीर्थ की दूसरी यात्रा करना निश्चय किया । यह घटना वि. सं. १२८६ की है। इस संघ में १८०० गाडियाँ थीं। इस संघ में अनेक महीधर भी अपने परिवार सहित सम्मिलित हुए थे। संघ चलता हुआ मांडलि (मांडल) गाँव में पहुँचा । यह समाचार पाते ही मंत्री तेजपाल आए और पूनड़शाह को अपने साथ धोलका ग्राम में ले गए। मंत्री वस्तुपाल भी अगवानी करने को सामने आए । संघपति की इच्छा थी कि जिस ओर श्री संघ की पदरज वायुके कारण उड़े उसी दिशा की ओर श्री संघ चलता रहे । संघपति और मंत्री वस्तुपाल के परस्पर बहुत समय तक वार्तालाप होता रहा । मंत्रीश्वरने बातों ही बातों में यह भी कहा कि वास्तव में श्री संघ की चरणरज महान् पवित्र है । इस के स्पर्श से पापरूपी पुंज तुरन्त दूर हो जाते हैं । वस्तुपालने पूनड़शाह और संघ को प्रीतिभोजन दिया और आप स्वयं साथ हो लिया। इस प्रकार संघ अंत में श्री शत्रुजयगिरि के निकट पहुँचा । वस्तुपाल मंत्री पूनड़शाह के साथ पर्वतराज पर पहुँच कर श्री आदीश्वर भगवान् को वंदना की । एक पूजारीने यह सोच कर कि स्नात्र के कलश से प्रभु की नासिका को बाधा न पहुँचे अतः नासिका को फूलों से ढक दिया । उस समय मंत्रीश्वर वस्तुपाल के मस्तिष्क में एक विचार हुआ कि कदाचित कलश अथवा परचक्र आदि से देवाधिदेव का अकथनीय अमंगल हो जाय तो संघ की क्या दशा होगी। दूरही विचारवान वस्तुपालने पूनमशाह को सम्बोधित करते हुए कहा-" मेरी इच्छा हुई है कि 'मम्माणी' पाषाण से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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