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________________ उपकेश गच्छ - परिचय | १२७ कार्य प्रारम्भ हुआ था तब से लेकर विक्रम की बारहवीं शताब्दी अर्थात् १६०० वर्ष पर्यंत इस कार्य में उपकेशगच्छ के आचार्योंने ही विशेष सफलता प्राप्त की । ज्याँ ज्याँ नये नये जैनी बनते गये I त्या त्याँ उनके पूर्व गोत्रों के नाम विस्मरण होते गये और जैसे २ कारण मिलते गये वैसे वैसे नये नये गोत्र स्थापित होते गये । गोत्रों के नामकरण के कई कारण हुए । कई गोत्र गुण के कारण, कई व्यवहारिक कारण से, कई प्रसिद्ध पुरुषों के नाम की स्मृति - हित, कई धार्मिक कार्यों के कारण और कई हँसी दिल्लगी हित पृथक् पृथक् गोत्र और जातियों के नाम से पुकारे जाने लगे । परन्तु ये सब की सब जातियाँ थी उपकेशगच्छोपासक ही । किन्तु बाद में जब समय पलटा, दुष्काल आदि दैवी संयोगों के फलस्वरूप श्रमण संघ में शिथिलता का संचार हुआ तो बहुत से लोग मनमानी करने को उतारू हो गये । यहाँ तक कि वह लोग चैत्यावास करने लग गये । जब चैत्यवासियोंने अपना पक्ष खींचना चाहा तो उसमें मुख्य मन्दिरों का ही कारण लिया था । चैत्यवासियोंने अपने अपने मन्दिरों के गोष्टिक ( सभासद् ) नियुक्त किये । कुछ अर्से बाद चैत्यवासी अपने मन्दिर के गोष्टिकों पर छाप मारने लगे कि तुम हमारे श्रावक हो । यहाँ तक कि दो तीन पीढ़ियां बाद वे यह कहने लगे कि तुम्हारे पूर्वजों को हमारे आचार्योंने मांस मदिरा आदि बुड़ा के जैनी बनाया था अत: तुम हमारे ही श्रावक हो और इसी लिये हमारा तुम्हारे ऊपर पूर्ण अधिकार है । 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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