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समरसिंह
पूर्व अन्यान्य प्रान्तों में चारों वर्णों के लोग जैनधर्मका पालन करते थे परन्तु मरुभूमि में वाममार्गियों का इतना प्राबल्य हो गया कि एक ऐसी संस्था स्थापित करना अनिवार्य हो गया कि जिससे सब लोग जैनधर्म की उपासना समानरूप से करने के अधिकारी समझे जायँ । वही संस्था आज पर्यंत चली आ रही है जो वर्तमान में ओसवाल के नाम से लोकप्रसिद्ध है ।
आचार्यश्री यक्ष देवसूरिने भारतवर्ष के पूर्वीयभाग में सवालक्ष जैनी नये बनाये तथा सिन्धप्रान्त में जैनधर्म का बजि वपन करने में अनेकानेक बाधाओं का निर्भीकतापूर्वक सामना किया । आचार्य श्रीकक्कसूरि जो सिन्धाधिपति महाराज रुद्राट् के सुपुत्र थे उन्होंने दीक्षित होने के पश्चात् अपनी जन्मभूमि के उद्धार में ही अपनी सारी शक्ति लगाई जिसके परिणामस्वरूप सिन्ध प्रान्त में जैन साम्राज्य स्थापित होगया | इतिहास इस बात का साक्षी है कि विक्रम की तेरहवीं शताब्दी तक सिन्धप्रान्त में अकेले उपकेशवंश के ५०० जिनालय विद्यमान थे । आचार्य श्री देवगुप्तसूरि ने कच्छ प्रान्त में असंख्य जैनी बनाये | आचार्य श्रीसिद्धसूरिने पञ्जाब और उसके निकटवर्ती प्रदेशों में परिश्रमपूर्वक लाखों अजैनों को जैनी बनाया |
इनके अतिरिक्त और भी उपकेशगच्छ के आचायोंने जहाँ जहाँ पदार्पण किया असंख्य अजैनों को जैनी बनाया। जिससे महाजन संघ की असीम अभिवृद्धि और जिनशासन की उत्कट सेवा हुई । विक्रम से चार शताब्दी पूर्व ही शुद्धि और संगठन का
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