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प्रस्तावना
यदि यह कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी कि साहित्य ही
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समाज का चक्षु है । साहित्य में भी ऐतिहासिक विषय का विशेष स्थान है । अतीत द्वारा भविष्य दिखाना ही इसका मुख्य काम है । संसार का प्रत्येक समाज अपने भविष्य को उज्जवल और उच्च बनाने के लिये चिंतातुर ही नहीं वरन् उत्साहपूर्वक तत्सम्बन्धी उद्योग करने में भी संलग्न है ।
साहित्य वृद्धि के उद्देश्य से ही मैं यह छोटा सा ग्रंथ आप सज्जनों के समक्ष उपस्थित करने का साहस करता हूँ । जब से शत्रुंजय गिरि का कर सम्वन्धी पिछला आन्दोलन शुरु हुआ सारे संसार का ध्यान इस पवित्र तीर्थाधिराज की ओर सहज ही में आकर्षित हो गया है । भारत से बहुत दूर बैठे जैनेतर विदेशी विद्वानों को भी इस गिरिराज की महत्ता जानने के विषय में अभिरुचि उत्पन्न हुई हैं। वैसे तो प्रत्येक जैनी और अधिकांश भारतीय विद्वान इस तीर्थाधिराज की महत्ता से परिचित है ही परंतु हिन्दी भाषा-भाषी संसार में भी इस विषय पर दो वर्ष के अर्से तक खासी हलचल मचती रही । सामयिक पत्र पत्रिकाओं में भी तीर्थाधिराज के सम्बन्ध में कई लेख आदि प्रकाशित हुए ।
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