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________________ ११५ समरसिंह करवाई। बाद में क्रमशः विहार करते हुए आप भोयणी नगर पधारे । वहाँ के राजा को धर्मोपदेश दे जिनधर्म का प्रेमी और नेमी बनाया । आप जैनधर्म का प्रचार कर अपने पट्ट पर सिद्धसूरि को प्राचार्य नियुक्त कर स्वर्गवास सिधारे । आचार्य सिद्धसूरि का एक गुरुभाई था जिसका नाम वीरदेव थे । वे प्रायः उपकेशपुर में ही रहते थे तथा साधु समुदाय व श्रावकों को पढ़ाया करते थे । आप बड़े विद्वान और अनेकानेक विद्याओं में पूरे प्रवीण थे । आपकी प्रशंसा सुनकर एक योगी आया । उस समय आप एक स्तम्भ पर खड़े थे । योगीने अपनी करामत दिखलाने को उनके पैर स्तम्भ पर चिपका दिये। यह देख वीरभद्रने इस से भी बढ़ कर चमत्कार दिखाने के उद्देश से स्तम्भों को हुक्म दिया कि चलो और वह स्तंभ आज्ञानुसार वीरभद्र को लिये हुए आगे बढ़े। यह करामत देखकर योगी क्षमा मांग नमस्कार कर वीरभद्र का शिष्य बन गया । वि. सं. १२५२ में उपकेशपुर नगर में एक म्लेच्छ की सेना चढ़ कर आई । उस समय आप अपनी आकाशगामिनी विद्या के कारण उस सेना की खबर लिया करते थे। आपकी गेरमोजूदगी में जब सेना नगर के बहुत निकट आ गई तो श्रावकोंने भय से भ्रान्त हो भगवान् श्री महावीर स्वामी की मूर्चि के रक्षणार्थ मूल गंभारे के भाडे पत्थर लगा दिये और जनता नगर १ ततः श्रीवीरबिंबस्य पुरः पाषाण बीडकं । दत्वा द्वारिनिश्ससारत्तावन्म्लेच्छा उपागता ॥ ५०८॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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