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उमरसिंह पढ़ कर उस के दो टुकड़े कर के कह दिया कि एक टुकड़ा तो राजा कुमारपाल को और दूसरा हेमचन्द्र को दे देना और साथ में यह भी कह देना कि शास्त्र के प्रतिकूल बात को मानने के लिये कोई भी प्राचार्य तैयार नहीं है । यह संदेश लेकर आदमी तो चला गया । पीछे सब आचार्यों ने मिल कर विचार किया कि समुद्र में रहते हुए मगर से बैर करना उचित नहीं क्योंकि इस समय पाटण का वातावरण हेमचन्द्राचार्य के पक्ष में हैं। महाराजा कुमारपाल यद्यपि सब गच्छों के चायों का मान करता है तथापि वह आचार्य हेमचन्द्र का ही विशेष भक्त है। परन्तु यह कब सम्भव हो सकता है कि अपनी मान्यता के प्रतिकूल योगशास्त्र को कैसे मान सकते हैं । जब ऐसा विचार होने लगा तो आचार्यश्रीने कहा! भो आचार्यों, भाप सब क्यों असमंजस में पड़े हो । आप लोग त्यागी हो । एक ही प्रान्त में या नगरमें रहना उचित नहीं, मेरे साथ सिन्ध प्रान्त चलिये, जहाँ एक उपकेशगच्छ प्राश्रित ५०० मन्दिर और लाखों श्रद्धालु सुश्रावक हैं जो आप की भक्तिपूर्वक सेवा करेंगे । साथ में आप लोगों को नये नये
१ तानू चेथ ककसूरि सिन्धु देशे मया सह ।
आगच्छ तय तस्तत्र किं कर्ता सौ नरेश्वरः ॥ ४४४ ॥ यस्य देव गृहस्येछा=देछावापियस्पतां । पूरयेतत्रयदेवगृह पंचशती ममः ॥ ४४५ ॥ श्रावका प्रथ संख्याताश्वलतातोजटित्यपि ।
संक्लेश कारकं स्थानं दूरतः पखिर्जयेत् ॥ ४६॥ (ना० नं० उ०) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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