SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०० उमरसिंहजम्बूनाग महत्तर। जम्बूनाग के चतुर्थ पट्टपर जिनमद्र हुए। ये विहार करते हुए अणहलपुरपट्टण पधारे । देवभद्र " ! उस समय वहाँ सिद्धराज जयसिंह का रामकनकप्रभ " | राज्य था। राजा का राज्य था। राजा की भावजने अपने पुत्र मा जिनभद्र , लोतासा को जिनभद्र के सुपूर्द कर दिया । जिमभद्र को ज्ञात हुआ कि इस व्यक्ति के सामुद्रिक शुभ लक्षणों से, ऐसा प्रतीत होता है कि भविष्य में यह लोतासा जिनशासन का महान् उपकारक होगा । अतएव उसे जैन दीक्षा दे कर पद्मप्रभ नाम रखा । ज्ञान ध्यान में पद्मप्रभ को खूब अभ्यास कराया गया । पाप के अन्दर तीन गुण विशेष तौर से शोभित थे । प्रत्येक गुण उत्कृष्ट दर्जे का था । थे ये थे-संगीत, वक्तृत्व और अध्यात्म । आप की मधुर लय को सुन कर स्वर्ग की सुन्दरियें भी दांतो तले ऊँगली दबाती थी। पाप की वक्तृत्वकला का क्या कहना । जो व्यक्ति आप का ओजस्वी भाषण श्रवण करता डस के हृदय में वीररस का संचार हो जाता था । आध्यात्मिक ज्ञान तो आप में कूट कूट कर भरा हुआ था । इन गुणोंपर मुग्ध हो कर जिनभद्रोपाध्यायने आप को वाचनाचार्य की उच्च पदवी से विभूषित किया । इस से आप की प्रख्याति और भी विशेष फैली । एक बार आप विहार करते हुए पाटण पधारे । आप के वहाँ कई भाषण हुए । व्याख्यान का विशाल पाण्डाल श्रोताओं से इतना खचाखच भर जाता था कि वहाँ तिल धरने को भी ठौर नहीं मिलती थी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy