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समरसिंह। उस समय उपकेशपुर में संचेती गोत्रीय कदी नामक शेठ बड़ा ही धनाढ्य और विशाल कुटुम्ब का स्वामी था अतः वह श्रेष्ठिवर्य कहलाता था। एक वार नागरिकों से आप का वैमनस्य हो गया अतः आप उस नगर को सकुटुम्ब त्याग कर पाटण नगर में पधार गये। वहाँ व्यापार में पुष्कल द्रव्योपार्जन किया । वह अमा.. श्रीकक्कसूरि का परम सेवक था। आचार्यश्री के उपदेश से मापने एक जिनमंदिर बनवाना निश्चय किया । द्रव्य जो न्यायमार्ग से उपार्जित किया जाता है वह ऐसे पवित्र कार्यों में ही सर्फ होता है । मन्दिर बनवाने के लिये कदीने कुच्छ सामग्री बाहर से मंगवाई । जगातवालोंने उस सामग्री पर भी कर वसूल करना चाहा । कदीने कहा कि देवमन्दिर के लिये मंगवाई हुई सामग्री पर कर नहीं देना पड़ता है । ऐसा नियम सब राज्यों में है तब ऐसे धार्मिक राजा के राज्य में वह अंधेर कहाँ का ? परन्तु इतना कहने पर भी दाणी के कान पर जूं तक नहीं रेंगी । अतः कदी बहुमूल्य भेंट ले कर राजा के समक्ष उपस्थित हुआ। वहांपर जाकर मुंहमांगा द्रव्य देकर जगात के महकमे का ठेका ले लिया और नगर में उद्घोषणा करवा दी कि किसी भी प्रकार का कर देवस्थान के लिये आई हुई बाहर की सामग्री पर नहीं लिया जायगा तत्पश्चात् कदीने अपना मनचहा कार्य आदि से अन्त तक निर्विघ्नतासे सफल किया-जो मन्दिर बनवाया था वह देवभुवन के सदृश भीमकाय और मनोहर था। १ कपर्दि नामा नित्य सुचिंतित कुलोद्भवः सकुटुबोधनी मानादणहिल्लरं ययो ॥ २१॥
समुप्पर्य बहुदैव्यं तत्र देव गृहं नवं विधातुं ढौक्यनेर्भूपं सतोष्यामियाचत ॥२९२॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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