SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - उपकेशगच्छ - परिचय | ९५ लगाये जाते हैं। शाखा का अर्थ इतना ही है कि नाम के अंत में वह चिह्न रहे यथा - सहजसुन्दर, देवप्रभ, रूपकनक, धनमेरु, ज्ञानसार, मुनिश्चन्द्र और सुमतिसागर आदि प्रत्येक शाखा में सहस्रों मुनि थे | इतनी विपुल संख्या में होने के कारण ही यह I गच्छ जेष्ठ गच्छ के नाम से भी संबोधित होता था । इस का दूसरा कारण यह भी था कि यह गच्छ श्रीपार्श्वप्रभु की बंश परम्परा का है | कुछ समय पीछे कक्कसूरि नामक आचार्य हुए। ये राजा और महाराजाओं के गुरु कहलाते थे । इस का यह कारण था कि यह गृहस्थावस्था में क्षत्रिय थे । इसी लिये क्षत्रियोंपर आप के उपदेश का अच्छा असर होता था । आचार्यश्री जिनभक्ति के उत्कट प्रेमी थे । मुनि होते भी आप वीणा वाद्य रस में रक्त थे । जब संघने एतराज पेश किया तो आपने अपने पदपर दूसरे मुनि को नियुक्त कर दिया । फिर आप विदेश की ओर पधार गये । भक्ति में अटूट श्रद्धा होने से आप को जैन सम्राट् रावण की उपमा दी जाती थी । इस घटना के होने से सर्व सम्मति से यह निश्चय हो गया कि इस गच्छ की आचार्य पदवी भविष्य में उपकेश वंशीय ( सोसवंश ) को ही दी जाय । माता और पिता दोनों पक्ष के गच्छ निर्मल होतो और भी उत्तम बात हो । यही मर्यादा आज पर्यन्त इस गच्छ में चली आ रही है । इसी जेष्ठ गच्छ में और कक्कसूरि नाम के आचार्य हुये । १ देखिए - उपकेशगच्छ पट्टावली ( जं० सा० संशोधक नमासिक से । } www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy