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समरसिंह। दिया कि हमारे गच्छाधीश देवगुप्तसुरि अभी गुर्जरभूमि में विहार कर रहे हैं अतः आप उनसे निवेदन करें। श्रेष्ठिने अपने पुत्रको इस कार्य के लिये भेजा । सूरिजी पधारे तब राजा और प्रजाने मिलकर सम्यक्रीतिसे स्वागत किया। उस नये बनाये गये मन्दिर की प्रतिष्टा महोत्सवपूर्वक हुई। उस मन्दिर की देखरेख के लिये एक कमीटी नियत की गई जिसके सभासद ७२ वीएँ और ७२ पुरुष ( गोष्टक ) चुने गये । इतने बड़े मन्दिर के कार्य के उत्तरदायित्वपूर्ण करने के लिये इतने ही बड़े समुदाय की आवश्यक्ता थी । इससे यह भी सिद्ध होता है कि पुरुषों की तरह स्त्रिएँ भी ऐसे कार्य को संचालित करने में समर्थ होती थी। कृष्णर्षिने केवल नागपुर में ही नहीं परन्तु सपादलक्ष प्रान्त में भी जैनधर्म का साम्राज्य सा स्थापित कर दिया था । क्या राजा और क्या प्रजा-सबके सब कष्णर्षि को अपना धर्म गुरु समझ सदैव उनकी सेवा किया करते थे। क्यों न हो-चमत्कार को नमस्कार सब .... करते ही हैं ! कृष्णर्षिने अपने उपदेशद्वारा इस प्रान्तमें इतने मन्दिर बनवाए कि जिनकी ठीक संख्या मालूम करना बड़ा कठिन था । कृष्णर्षि बड़े प्रभावशाली थे। यहाँ तो केवल संक्षिप्त परिचय देनाही हमारा इष्ट है। इन्हीं जैसे और भी अनेक प्रतापी भाचार्य इस गच्छ में हुए थे जिन्होंने जिनशासन में प्रचार द्वारा खूब वृद्धि की थी। १ तत्र द्वा सप्तति गोष्टीगोंष्टिका नापचीकरव ।
जैनधर्मस्य साम्राज्यं ततो नागपुरेऽभवत् ॥ २ सपादलचे कृष्णार्षिक कृष्टं विदधे तयः । यनिरीक्ष्य अनः सों विदथे पूर्व सूचनः ॥
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