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समर सिंह |
प्रतिष्ठा करवाई गई । इस महोत्सव का सांगोपांग विशद वर्णन करना लोहे की लेखनी की तुच्छ शक्ति के बाहर की बात है । सोलह माना यही कहावत चरितार्थ है ' गिरा अनयन नयन बिनु बानी ' । जिस श्रांखने देखा वह तो बोल सकती नहीं और जो बानी बोलना चाहती है उसने देखा कहाँ ? चारों दिशाओं की चोर प्रसारित होती हुई कीर्ति को वटोर कर एक जगह रखने के उद्देशसे ही मानो देशलशाहने ध्वजदंड और कलश को स्थापन किया था | उस मन्दिर के इर्द गिर्द कोट बनवाया गया जिनमें रही हुई २४ देवकुलिकाऐं किसी विबुधभवन की याद दिला रही थी । इससे जैन धर्म की बहुत अधिक प्रभावना तथा वृद्धि हुई । राजा और प्रजा दोनों पर जोरदार असर पड़ा ।
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तदन्तर देशलशाह इन कार्यों को कर आचार्य श्री सिद्धसूरि के साथ वहाँसे रवाने होकर गुजरात प्रान्तके पाटण नगर में पेहुँचे । क्यों कि वहाँ हमारे चरितनायक समर सिंह पाटण राज्य I में सूबेदार के उच्चपद पर अधिकारी थे । पाटण व्यापार का भी केन्द्र था अतः देशलशाह भी वहीं निवासकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे । आचार्यश्री सिद्धसूरि भी उस समय पाटण में विराजकर मोक्षमार्ग का चाराधन कर रहेये ।
१ क्रमेण जलयात्रादि महोत्सवपुरस्सरम् । प्रतिष्ठालग्ने समयं सिद्धरिसाधयत् ॥ ६४७ ॥
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२ साधुर्विधाय विविधैरय धर्मकृत्यैः । श्री जिनशासन समुन्नतिमत्र देशे ॥ श्री गुर्जराय निधिक्यपतनेऽसौ सार्धं जगाम गुरुर्गुरुकार्यसिद्धौ ॥ ९४३ ॥
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