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स्वामी तथा टीकाकार महाराजों ने कल्पसूत्र में [ चउ उत्तरासाढे अभी पंचमे हुत्था - चत्वारि कल्याणकानि उत्तराषाढायां पुन: अभिजिन्नक्षत्रे पंचमं कल्याणकं अभवत् ] इन वाक्यों से श्री ऋषभदेव स्वामी के पाँच कल्याणक बताये हैं और पंचाशक में ४५० तीर्थकरों के पाँच पाँच कल्याणक बताने की अपेक्षा से श्रीवीरप्रभु के पाँच कल्याणक लिखे हैं, सो मानेंगे तो हम भी कहते हैं कि श्रीभद्रबाहु स्वामी ने श्रीकल्पसूत्र मूलपाठ में देवलोक से देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि में श्रीवीर प्रभु आये, माता ने १४ स्वप्ने देखे और प्रथम श्रीइन्द्र महाराज ने [तं सेयं खलु ममवि - ततः श्रेयः खलु ममापि ] इन वाक्यों के द्वारा श्रीवीर गर्भापहार से निश्चय अपना भी कल्याण माना है तो कल्याणकरूप श्रीवीर गर्भापहार को आपके धर्मसागरजी वगैरह ने उक्त सूत्रपाठ मंतव्य - विरुद्ध नवीन उत्सूत्र प्ररूपणा करके श्रीत्रिशलामाता की कुक्षि में स्थापन करनेरूप श्रीवीर गर्भापहार को अकल्याणकरूप प्रत्यंत निंदनीयरूप क्यों माना ? और आप वैसा क्यों मानते हैं ? अगर इस विषय से संमत मूल आगमपाठ हो तो बतलाइये ; अन्यथा श्रीतीर्थंकर महाराजों का प्रपनी माता की कुक्षि में
नानादि काल की रीति के अनुसार कल्याणकरूप प्रसंशनीय - रूप ही माना जायगा । कौन भाग्यशाली इस उचित वृत्तान्त में मना कर सकता है ?
१२ [प्रश्न ] और भी देखिये कि पंचाशक में [आषाढ़ सुद्ध छठ्ठी चेत्ते तह सुद्ध तेरसी ] इत्यादि वाक्य से आषाढ़ सुदी ६ की मध्य रात्रि के समय में देवलोक से देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि में श्रीवीर तीर्थकर कर प्राश्चर्यरूप गर्भपने से उत्पन्न हुए उसको कल्याणकरूप लिखा है और चैत्र सुदी १३ को
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