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( १२ ) त्रिशला माता जी की कुक्षि से श्रीवीर प्रभु का जन्म हुआ उसको भी कल्याणकरूप बतलाया है परंतु श्रीकल्पसूत्र के [आसोम बहुलस्स तेरसी पक्खेणं] इस वाक्यानुसार आश्विन कृष्ण १३ की मध्य रात्रि के समय देवानंदा ब्राह्मणी के कुक्षि से श्रीत्रिशलामाता की [कुञ्छिसि गन्मताए साहरिए] कुक्षि में श्रीवीर प्रभु को गर्भपने से कल्याणकरूप स्थापन किये गये, इस अधिकार को पंचाशक में नहीं लिखा । इसका कारण यह है कि पंचाशक में श्रीवीर प्रभु के [गन्भाइ दिणा] इत्यादि वाक्य से गर्भ, जन्म आदि ५ कल्याणक दिनों को बताकर नीचे यह लिखा है कि [सेसाणवि एवं विय णिय णिय तित्थेसु विगणेया] अर्थात् इस वाक्य से ऋषभादि ४८० तीर्थकरों के भी गर्भ जन्मादि पाँच पाँच कल्याणक दिनों को इसी प्रकार याने श्रीवीर गर्भ जन्मादि ५ दिनों की तरह सर्व तीर्थकरों के निज निज तीर्थों में जान लेना उचित है । इस कथन से श्रीहरिभद्रसूरि जी महाराज ने श्री ऋषभादि सर्व तीर्थकरों के गर्भ जन्म श्रादि पाँच पाँच कल्याणक दिन बताने की अपेक्षा से और दूसरे तीर्थकरों का गर्भापहार नहीं हुआ है इस अपेक्षा से श्रीवीर प्रभु के गर्भ जन्म आदि पाँच कल्याणक दिनों को दृष्टांत द्वारा लिखे हैं और गर्भापहार नहीं लिखा, इससे गर्भापहार के द्वारा श्रीवीर तीर्थकर त्रिशलामाता की कुक्षि में आये सो अप्रामाणिक वा अत्यंत निंदनीयरूप अकल्याणकरूप है, ऐसा किसी शास्त्र से सिद्ध नहीं हो सकता है तो एकांत प्राग्रह से आपके उक्त उपाध्यायजी ने वैसा किस पंचागी प्रमाणों से मान लिया है ? सो पाठ दिखलाइये।
१३ [प्रश्न ] प्राप लोग अन्य तीर्थकरों के चक्रवर्तित्व धादि राज्याभिषेकों को त्यागकर केवल ऋषभदेव तीर्थकर के खज्या
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