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( ५८ ) तेण परमऽभिग्गहियं, गिहिणाय कत्तिो जाव ॥१॥
अर्थ-आषाढ़ी पूर्णिमा को अनभिग्रहित ( अनिश्चित) याने गृहिअज्ञात पर्युषण जिसमें वर्षायोग्य वस्तु ग्रहण करके द्रव्यादि स्थापना करते हैं सो क्षेत्र के अभाव से अभिवर्द्धित वर्ष में आषाढ़ी पूर्णिमा से पाँच पाँच दिनों की वृद्धि करके २० रात्रि पर्यत और चंद्रवर्ष में २० रात्रिसहित १ माल अर्थात् ५० रात्रि पर्यत है। उसके बाद याने अभिवर्द्धित वर्ष में जैनटिप्पने के अनुसार पौष और आषाढ़ मास की वृद्धि होती है इसीलिये आषाढ़ पूर्णिमा से २० वीं रात्रि श्रावण शुक्ल पंचमो को अभिग्रहित (निश्चित ) गृहिज्ञात सांवत्सरिक प्रतिक्रमणदि कृत्ययुक्त पर्युषणपर्व करे और १०० दिन यावत् कार्तिक पूर्णिमा पर्यत उस क्षेत्र में साधु रहे तथा चंद्रवर्ष में मासवृद्धि नहीं होती है इसी लिये आषाढ़ पूर्णिमा से ५० वीं रात्रि भाद्र शुक्ल पंचमी को अभिग्रहित (निश्चित ) गृहिज्ञात सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि कृत्य युक्त पर्युषणपर्व करे और ७० दिन यावत् कार्तिक पूर्णिमा पर्यत उस क्षेत्र में साधु रहे । इसी मंतव्य को श्रीनियुक्तिकार महाराज फिर स्पष्ट लिखते हैं किअसिवाइ कारणेहिं, अहवा वासं ण सुट्ठ पारद्धं ॥ अभिवढियंमि २० वीसा, इयरेसु ५० सवीसइ मासो ॥ २॥
अर्थ-अशिवादि कारणों से विहार करना पड़े अथवा उस क्षेत्र में वर्षा अच्छी तरह प्रारंभ नहीं हुई तो साधु की निंदा अथवा लोग हलादि से खेती आदि प्रारंभ करें इत्यादि अधिकरण दोषों के कारणों से श्रीभद्रबाहु स्वामी ने जैनसिद्धांत टिप्पने के अनुसार पौष और प्राषाढ़ मास की वृद्धि के कारण
से उस अभिवर्द्धितवर्ष में २० दिने श्रावण सुदी पंचमी को उपShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com