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करें; अन्यथा निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर प्रकाशित करने आनंदसागर जी को उचित हैं
१[प्रश्न ] आपके गच्छ के विनयविजयजी ने कल्पसूत्र सुबोधिका टीका में लिखा है कि
"नीचर्गोत्रविपाकरूपस्य अतिनिद्यस्य आश्चर्यरूपस्य गर्भापहारस्यापि कल्याणकत्वकथनं अनुचितं "
अर्थात् इस वाक्य पंक्ति में आपके उक्त उपाध्याय जी ने त्रिशला माता की कुक्षि में स्थापन करने रूप श्रीवीर गर्भापहार को नीचगोत्र विपाकरूप अत्यंत निंदनीयरूप अकल्याणकरूप जो लिखा है सो किस सूत्र के आधार से लिखा है ? क्योंकि कल्पसूत्र मूल पाठ में [ गब्भारो गम्भं साहरिए। अर्थात् देवानंदा के गर्भ से त्रिशलारानी के गर्भ में श्रीवीर प्रभु को स्थापन किये सो इन्द्र महाराज ने उपर्युक्त पाठ के अनुसार सेयं-श्रेयः] कल्याणक रूप माना है इसलिये आपके उपाध्याय जी का उक्त कथन सूत्रविरुद्ध है या नहीं?
२[प्रश्न ] पंचाशक प्रकरण टीका के प्रमाणानुसार श्रीवीर प्रभु के आप एकांत से पाँच कल्याणक मानते हैं तो उक्त पंचाशक प्रकरण ग्रंथ के पाठानुसार तपगच्छ के श्रावकों को सामायिक लेने में प्रथम करेमिभंते का उच्चारण करके पीछे इर्यावही करना इसको आप एकांत से मानियेगा या नहीं?
३[प्रश्न ] पंचाशक मूलपाठ तथा टीकापाठ से आप श्रीवीर प्रभु के पाँच कल्याणक मानते हैं तो उसी प्रकरण के मूलपाठ तथा टीकापाठ में "ग्राभवमखडा पर्यंत जय वियराय बोलना बताया है तो आप उस मर्यादा को नित्य त्याग कर
अधिक करना क्यों मानते हैं ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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