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( ३४ ) ब्रह्मचारी न तु रात्रौ इति वचनं दिवसे ब्रह्मचर्ये नियमार्थ न तु रात्रौ ब्रह्मनिषेधार्थ अन्यथा पंचमप्रतिमाऽऽराधकेन श्राद्धेन रात्रावऽब्रह्मचारिणैव भाव्यमिति पापोपदेश एव दत्तः स्यात् रात्रौ ब्रह्मपालने प्रतिमाऽतिचारश्च प्रसज्येत इत्यादि ।
अर्थ-आवश्यक वृत्यादि में श्रावक की पंचम प्रतिमा के अधिकार में श्रावक दिवस में ही ब्रह्मचारी किंतु रात्रि में वह श्रावक ब्रह्मचारी नहीं, यह वचन दिवस में ब्रह्मचर्य में नियमार्थ है, किंतु रात्रि में ब्रह्मचर्य का निषेधार्थ नहीं है । अन्यथा पंचम प्रतिमा आराधक श्रावक(दिवैव ब्रह्मचारी न तु रात्रौ)दिवस में ही ब्रह्मचारी किंतु रात्रि में ब्रह्म बारी नहीं, ऐसा शास्त्रकारों का पाप का ही उपदेश दिया सिद्ध होगा और रात्रि में ब्रह्मवर्य पालने में प्रतिमा को अतिचार लगेगा । इत्यादि दोबापत्ति शास्त्रकारों के वचनों में तपगच्छवाले प्रतिपादन करते हैं, परन्तु श्रीतीर्थकर गणधर टीकाकार श्रादि महाराजों ने श्रीसमवायांग सूत्र आदि ग्रंथों में श्रावक की पंचम प्रतिमा के अधिकार में कहा है कि--
दिया बंभयारी रत्ति परिमाणकडे-दिवाब्रह्मचारी रत्तीति 'रात्रौ किमऽताह परिमाणं स्त्रीणां तभोगानां वा प्रमाणं कृतं ।
अर्थ-दिवस में पंचम प्रतिमाधारी श्रावक ब्रह्मचारी रहे, रात्रि में वह श्रावक क्या करे ? इसलिये सूत्रकार महाराज कहते हैं कि (परिमाणकडे ) स्त्रियों का वा स्त्री के भोगों का प्रमाण करे । तपगच्छवालों के कहने-से शास्त्रकारों का यह पाप का ही उपदेश दिया सिद्ध नहीं हो सकता है, क्योंकि श्रीतीर्थकर गणधर श्रादि महाराजों ने श्रावक के लिये यथोचित धर्मोपदेश ही दिया है। और उक्त प्रतिमाधारी श्रावक को रात्रि में माचर्य का निषेध Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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