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में और श्रावकप्रशप्ति की टीका आदि ग्रंथों में पौषधउपवास, प्रतिथिसंविभाग, ये दोनों व्रत श्रावक को प्रतिनियत दिवसों में ( अनुष्ठेय ) करने योग्य हैं, किंतु प्रतिदिवसों में पौषध उपवास, अतिथिसंविभाग व्रत आचरण करने योग्य नहीं हैं । यह वचन पर्व से अन्य दिनों में पौषध का निषेध नहीं बतलाता है किंतु पर्वदिनों में पौषध करने का नियम दिखलाता है । याने तपगच्छ वाले ( प्रतिनियत दिवसाऽनुष्ठेय ) इस वाक्य का अर्थ पर्वदिनों में पौषध करने का नियम, यह अर्थ तो वाक्यानुकूल बतलाते हैं; किंतु ( न प्रतिदिवसाचरणीय ) यह वचन पर्व से अन्य दिनों में पौध का निषेध नहीं दिखलाता है, यह अर्थ तपगच्छवाले करते हैं, सो उक्त वाक्य के अनुकूल नहीं है । याने उक्त वाक्यविरुद्ध इस झूठे अर्थ से तपगच्छवाले पर्व पर्व - रूप प्रतिदिवसों में पौषध उपवास व्रत करने का अपने पक्ष को सिद्ध करते हैं । परंतु इस तरह सिद्धांतों के वचनों का झूठा अर्थ करने में महादोषापत्ति आती है । क्योंकि श्रीतीर्थंकर गणधर महाराजों की प्ररूपणा के अनुकूल श्रीहरिभद्रसूरिजी आदि महाराजों ने उपर्युक्त पाठों से श्रावक की यथाशक्ति नियमानुसार पौषध उपवास व्रत अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावास्या, कल्याणक तिथियाँ, पर्युषण पर्व आदि प्रतिनियत पर्वदिवसों में ( अनुष्ठेय ) करने योग्य लिखा है; और प्रतिदिवसों में पौषध उपवास व्रत श्रावक को आचरण करने योग्य नहीं है, ऐसा निषेध स्पष्टही लिख दिखलाया है । इस विषय में तपगच्छवाले अपने पक्ष की सिद्धि के लिये चाहे जितने कुतर्क और झूठे अर्थ करें परन्तु उक्त सूरिजी के यथोचित वचनों में कुछ भी दोषापत्ति नहीं सकती है। क्योंकि तपगच्छवाले लिखते हैं कि
आवश्यकवृत्यादौ श्राद्धपंचमप्रतिमाऽधिकारे दिवैव
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