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तथा उपधान तप के दिनों में एवं पर्युषण तथा चौवीश तीर्थकरों के १२१ कल्याणक संबंधी अनेक पर्वतिथियों में पौषध उपवास व्रत करना शास्त्रपाठों से खरतरगच्छवाले बतलाते हैं उन पर्वतिथियों में पौषध करने में विशेष लाभ को वा पौषध करना तपगच्छवाले त्याग कर अर्थात् शास्त्रोक्त पौषध नियम के उक्त पर्वतिथियों में पौषध नहीं करके अनियम से अपर्व तिथियों में पौषध करने का आग्रह करते हैं, अथवा पर्व अपर्वरूप प्रतिदिवसों में पौषध आचरण करना मानते हैं, परंतु श्रीगणधरादि महाराज विरचित सूत्र, टीका चूर्णि आदि अनेक ग्रंथों के अभिप्राय ज्ञाता, १४४४ ग्रंथकर्ता बहुश्रुत श्रीमान् हरिभद्रसूरिजी महाराज ने आवश्यकसूत्र की बृहट्टीका में पोषधोपवास तथा अतिथि-संविभाग यह दोनों व्रत प्रतिनियत दिनों में [ अनुष्ठेय] करने योग्य हैं किंतु प्रतिदिवस आचरण करने योग्य नहीं है, ऐसा निषेध लिखा है । तत्सम्बन्धीपाठ । यथा
___ चत्वारीति संख्या शिक्षापदव्रतानि शिक्षा अभ्यासः तस्याः पदानि स्थानानि व्रतानि शिक्षापदवतानि इत्वराणीति तत्र प्रतिदिवसानुष्ठेये सामायिकदेशावगाशिके पुनः पुनरुच्चार्ये इति भावना, पोषधोपवासाऽतिथिसंविभागौ तु प्रतिनियतदिवसाऽनुष्ठेयौ न प्रतिदिवसाऽऽचरणीयौ इति ।
अर्थ-श्रावकधर्म में पाँच अणुव्रत तीन गुणव्रत यह यावत् कथिक अर्थात् एक वार ग्रहण किये हुए यावज्जीवन पर्यत भावना करने योग्य हैं और चार जो शिक्षावत हैं वे इत्वर याने अल्पकालीन हैं, उनमें सामयिक तथा देशावकाशिक यह दोनों शिक्षाबत प्रतिदिवस अनुष्ठेय हैं याने पुनः पुनः उभारणीय है। और पोषध-उपवास अतिथि-संविभाग यह दोनों
धर्म में पाँच प्रण किये हुए यातत हैं वे
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