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________________ प्रश्नोत्तररत्नमाळा : : ५४ : : संसार में श्री ऋषभादिक प्रभु का ही नाम अचल हैं, क्यों: कि वे पूर्ण पदवी पाये हुए परमात्मा हैं । पूर्णताहीन दूसरे देव, दानव और मानवादिक का नाम अचल नही है; क्योंकि वे जिस जिस स्थान पर पैदा हुए वहां उनके नाम पृथक् पृथक् थे । वे एक वक्त अछे तो दुसरी वक्त बूरे, स्वस्व शुभाशुभ कर्मानुसार थे और इसीलिये उनके नाम अचल नहीं कहला शकते । जबकि जिन्होने पूर्व तीसरे भव में अति निर्मल अध्यवसायद्वारा तीर्थंकर नामकर्म बांधा हैं, जिससे उनका अनुक्रम से इस मनुष्य लोक में, प्रार्य देश में, उत्तम कुल में अवतार होता है, वहाँ उनका उत्तम गुण निष्पन्न सार्थक नाम रखा जाता है और उनका निश्चयरूप में उसी भन्त्र में मोक्ष जाना निर्मित होता हैं, इससे पूनर्भव हो ही नहीं सकता । इन इन कारणों से प्रभु का ही नाम अचल कहलाता हैं । इतना ही नही अपितु प्रभु का गुणनिष्पन्न मंत्ररूप नाम निर्मल श्रद्धा से स्मरण करनेवाला भी अनुक्रम से कर्म कलंक को दूर कर अपुनर्भवी बन सिद्ध बुद्ध और मुक्त होता है । अतः प्रभू के पवित्र नाम को एकनिष्ठा से स्मरण करनेवाले का नाम भी इसी प्रकार अचल हो सकता है क्योंकि फिर उसको जन्म लेने की आवश्यकता नहीं रहती । ७१ – धर्म एक त्रिभुवन में सार - जिस सत् साधनद्वारा आत्मा अविचल सुख को प्राप्त करती है अर्थात् जन्म, मरण, प्राधि, व्याधि तथा संयोगवियोग जन्य अनन्त दुःखोदधि पारकर अनन्त अक्षय अन्याबाध अपुनर्भव ऐसा अचल मोक्षसुख प्राप्त करें वे साधन, दान, शील, तप, भावना, देशविति या सर्वविरतिरूप धर्म ही जगत्रय में सार - भूत है । यदि जीव को जन्म मरण के दुःख से त्रास उत्पन्न होता हो और निरुपाधिक सुख की ही चाहना हो, तो जगत् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035213
Book TitlePrashnottarmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherVardhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages194
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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