SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्नोत्तररत्नमाळा wwwww उच्च संगति से. आत्मा उच्च स्थिति को प्राप्त करती हैं, उत्तम गुण प्राप्त करती है; जबकि नीच संगति से प्राणि नोच स्थिति को प्राप्त करता हैं। जिस प्रकार स्वाति जल सर्प के मुख. में पडकर विषरूप हो जाता हैं, तप्त लोह पर पड़ने से विनाश हो जाता हैं, उसी प्रकार उत्तम आत्मा भो नीच की संगति से होनता को प्राप्त होती है, अतः नीच संगति का त्याग कर उच्च संगति प्राप्त करने का उपदेश किया गया हैं। ६६-मलिये सदा संत से जाई-दुनिया की खटपट छोड़कर वैराग्य रस में रत्त संत-सुसाधु जनों की ही संगति से प्रात्मा को पारमार्थिक लाभ प्राप्त होता हैं । उनकी आन्तरिक वृत्ति अत्यन्त निर्मल निष्पाप हो जाती है। वे अत्यन्त गुणानुरागी होते हैं, अतः उनका दर्शन भा पापहर होता हैं तो फिर उनकी सेवाभक्ति और बहुमानादिक का तो कहना ही क्या ? संतसेवादिकसे तो कोटि भव के पाप टलजाते हैं और अपूर्व ओत्मलाभ प्राप्त होता है। दुनियामें ऐसी कोई भी वस्तु नही हैं कि जो संतसेवा से लभ्य न हो । ऐहिक सुख तो क्या पर मोक्षसुख भो संतजनों की सेवादिक से सुलभ हो जाता हैं । अतः सम्पूर्ण सुख के इच्छुक जनों को अवश्य संतसेवा करना उचित हैं। ६७-साधु संग गुण वृद्धि होय–हिंसा, असत्य, अदत्त, अब्रह्म श्रार परिग्रह को छोड़कर प्राप्त वचनानुसार अहिंसादि उत्तम महाव्रतों को ग्रहणकर उनका यथाविधि निर्वाह कर प्रात्महित की साधना करें वे सब साधु की पंक्ति में गिने जाते हैं। ऐसे साधुजनों के परिचय से गुण में वृद्धि होती हैं और अवगुण में कमी । विनय (मृदुता-नम्रता ) जो सब गुणों का वशीकरण हैं, उसका उपयोग साधु परिचय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com को साधणकर होती जाते हैं।
SR No.035213
Book TitlePrashnottarmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherVardhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages194
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy