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________________ प्रश्नोत्तररत्नमाळा :: ५०:: वृत्ति उपादेय है। कपट रहित मन, वचन और काया से होनेवाली व्यवहारकरणी या धर्मकरणी जीव को दुर्गति से बचाकर सद्गतिगामी बनाती हैं। ६४-लोभ समो सायर कोई नाहि-लोभ को यहां सागर की उपमा दी गई हैं यह इस लिये कि जीव को जैसे जैसे लाभ मिलता जाता है वैसे वैसे लोभ बढ़ता जाता है और वह अनुक्रम से बढ़कर सागर जैसा विशाल हो जाता हैं, परन्तु लोभमूलानि दुःस्वानि इस न्याय से लोभ में दुःख की परम्परा हैं, उसको लोभान्ध देख नहीं सकता हैं, इस लिये उससे खिचा जाता है। कहाँ हैं कि “ कोउ सयंभुरमण को, जो नर पावे पार । तो पण लोभ समुद्र की, लहे न मध्य प्रचार ॥ आगर सब ही दोष को गुण धन को बड़ चोर, व्यसनवेली को कंद हैं, लोभ पास चहुँ और ॥ ऐसा समझकर सुख के अर्थी जनों को संतोषवृत्ति ग्रहणकर लोभवृत्ति का त्याग करना चाहिये । ६५-नीच संग से डरिये भाई-ज्ञानी पुरुषोंने सब से बड़ा दुःख नीच संगति कहां है । नीच संगति से प्राणी नीच वृत्ति सीखता है. और नीच वृत्ति से नरकादि नीच गति को प्राप्त होता है । इस प्रकार नीच संगति का परिणाम बहुत बुरा होता है, अतः शास्त्रकार नोच-संगति त्याग करने का उपदेश करते हैं और उत्तम संगति में रहने को कहते हैं। उत्तम संगति में हमारे में उत्तमता आती हैं। जिस प्रकार सुगंधित पुष्प के संग से तेल-फुलेल सुगंधित होता हैं, मलयाचल के सुगंधित पवन के संग से वृक्ष भो चन्दन के भाव को ग्रहण करते हैं और मेरुपर्वत के शिखर पर उंगा हुअा तृग भो सुवर्णपन प्राप्त करता हैं, इसी प्रकार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035213
Book TitlePrashnottarmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherVardhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages194
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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