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________________ प्रमोत्तररत्नमाळा लेने मात्र से हो कोई कार्य सिद्धि नहीं हो सकती । सच्चा क्षत्रीयपन तो कर्म शत्रुओं को वश में कर लेने में हो समाया हुआ है ऐसे उपरोक्त शब्दों से स्पष्ट है । शेष क्षत्री नामधारी राग, द्वेष और मोहादिक कर्म शत्रुओं को वश में करने के बदले ऊलटे उनके वशीभूत हो दीन, अनाथ और निरपराध जानवरों को शोक के लिये अथवा जीभ की लोलुपता से सिकार करते हैं वे तो स्वक्षत्रिय नाम को केवल कलंकित ही करते हैं । सच्चे क्षत्री. पुरुषरत्नों में तो उत्तम प्रकार की क्षमा, मृदुता, सरलता, सत्य, संतोष और संयमा दिक उत्तम प्रकार के सदगुण होने चाहिये । शुद्ध शीलअलंकार को धारण करना, परदारा सहोदरपन रखना, उत्तम नीति और न्याय की धुरा को धारण करना, अनीति और अन्याय को देशनिकाल देना, विवेकरन को जागृत कर मांस-मदिराके दुष्ट व्यसनों को निर्मूल करना आदि सद गुणों को अवश्य धारण करना चाहिये । जो जो जन चाहे जिस जाति के क्यों न हो ? यदि वे उक्त सद्गुणों को धारण करें तो वे सजन उस उस जाति में उत्तम प्रकार के दृष्टान्त. रूप बन अनेक दीन-अनाथ जनों का उद्धार करने में समर्थ हो सकते हैं तथा शीघ्रतया ही स्वदेशोद्धार करने में सहायभूत सिद्ध हो सकते हैं। ४५. वैश हाणी वृद्धि जे लखे-जो हानि लाभ का विचार कर जिस में अचूक लाभ हो वह कार्य करे और जिसमें अचूक हानि होना संभव हो वह कार्य कभी न करे उसे ही सचा वैश्य समझना चाहिये । चाहे जिस अदृश्य कारणों से जैसे ब्राह्मण और क्षत्रियों में स्थिति का विपर्यय होना जान पड़ता है अर्थात् जैसी उनकी परमार्थी स्थिति होनी चाहिये उससे बहुधा विपरीत ही दिखाई देती है उसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035213
Book TitlePrashnottarmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherVardhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages194
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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