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________________ प्रश्नोत्तररत्नमाळा ::२४:: जन्य अनन्त दुःख दावानल में जला ही करता है और ऐसा होने पर भी मोह-मदिरा के प्रबल वेग विकार से वह अपने आप को सुखी प्रतीत करता है अथवा ऐसे ही कल्पित क्षणिक सुख की आशा रखता है। ऐसे अयोग्य जीव का कल्याण कैसे हो सकता है ? २९ से ५७ तक २९ प्रश्नों का उत्तर परभव साधक चतुर कहावे, मूरख जे ते बंध बढ़ावे । त्यागी अचल राज पद पावे, जे लोभी ते रंक कहावे ॥ ९॥ उत्तम गुणरागी गुणवंत, जे नर लहत भवोदधि अंत । जोग जस ममता नहि रति, मन इन्द्रि जीते ते जति ॥१०॥ समता रस सायर सो संत, तजत मान ते पुरुष महंत । सुरवीर जे कंद्रप वारे, कायर काम-आणा सिर धारे ॥११॥ अविवेकी नर पशु समान, मानव जस घट आतम ज्ञान । दिव्य दृष्टि धारी जिनदेव, करतां तास इन्द्रादिक सेव ॥१२॥ ब्राह्मण ते जे ब्रह्म पिछाणे, क्षत्री कर्म-रिपु वश आणे । वैश्य हाणि वृद्धि जे लखे, शुद्ध भक्ष अभक्ष जे भखे ॥१३॥ अथिर रूप जागो संसार, थिर एक जिन धर्म हितकार । इन्द्रि सुख छिल्लर जल जाणो, श्रमण अतिद्रि अगाध वखाणो॥१४॥ इच्छारोधन तप मनोहार, जप उत्तम जग में नवकार । संजम आतम थिरता भाव, भवसायर तरवा को नाव ॥१५॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035213
Book TitlePrashnottarmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherVardhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages194
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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