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________________ प्रश्नोत्तररत्नमाळा :: १८ :: खानपान वगेरे करना, नाना प्रकार के रस का त्याग करना, समझकर स्वाधीनरूप से शीत, तापादिक को सहना, और नाना प्रकार के आसन जप प्रमुख से देह का दमन करना, ये सब बाह्य तपरूप हैं। यह बाह्य तप उत्तम लक्षण से किया जावे तो इससे अभ्यन्तर तप की पुष्टि होती है। जाणता अजाणता गुप्त या प्रकटरूप से किये पाप की निष्कपटरूप से गुरु के समीप शुद्धि करना, गुणीजनों का बहुमान करना, सद्गुणो की सेवा-चाकरी करना, अभिनव शास्त्र का पठनपाठनादिक करना, अरिहंतादिक पद का स्वरूप समम कर उसमें अपनी वृत्ति स्थिर करना और देहमूर्छा का त्याग कर परमात्मस्वरूप में तल्लीन होजाना ये अभ्यन्तर तप कहलाते हैं । समतापूर्वक शास्त्र, आज्ञानुसार पूर्वोक्त तप करने से अनेक जन्म के संचित कठिन कर्म भी क्षय होजाते हैं । अतः मोक्षार्थी जनों को आत्मविशुद्धि करने निमित्त उक्त उभय प्रकार के तप अवश्य सेवना योग्य है । तीर्थकरोंने भी उत्तम तप का प्राश्रय लिया है। २०. वेदभेद बंधन दुःखरूप-वेदभेद अर्थात् चार भेदवाला बंधन (बंध ) दुःखदायक ही है। परमार्थ ऐसा है कि नवतत्त्व में अनुक्रम से कथित बंध चार प्रकार का है। वह मोक्ष का विरोधी होने से दुःखदायक हो है । १ प्रकृतिबंध, २ स्थितिबंध, ३ रसबन्ध और ४ प्रदेशबंध । आरमा के ज्ञानादिक गुण को आधरने का स्वभावाला प्रकृतिबन्ध, दीर्घ या हस्व काल की स्थिति का निश्चय करनेवाला स्थितिबंध, १-२-३-४ ठाणियों अथवा तीव मंदादिक शुभाशुभ रस जो विपाककाल में वेदना पडे वह रसबंध और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035213
Book TitlePrashnottarmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherVardhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages194
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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