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महान इतिहास वेत्ता श्री जिन विजयजी लिखते हैं x कि " श्वेताम्बर जैन संघ जिस स्वरूप में आज विद्यमान है, उस स्वरूपके निर्माण में खरतर गच्छके आचार्य, यति और श्रावक - समूह का बहुत बड़ा हिस्सा है । एक तपागच्छको छोड़कर दूसरा और कोई गच्छ इसके गौरवकी बराबरी नहीं कर सकता । कई बातों में तपागच्छ से भी इस गच्छका प्रभाव विशेष गौरवान्वित है। भारत के प्राचीन गौरवको अक्षुण्ण रखनेवाली राजपुतानेकी वीर भूमिका पिछले एक हजार वर्षका इतिहास ओसवाल जाति के शौर्य, औदार्य, बुद्धि-चातुर्य और वाणिज्य-व्यवसाय - कौशल आदि महद् गुणोंसे प्रदीप्त है और उन गुणों का जो विकाश इस जातिमें इस प्रकार हुआ है, वह मुख्यतया खरतरगच्छके प्रभावान्वित मूल पुरुषोंके सदुपदेश तथा शुभाशिर्वादका फल है । इसलिये खरतरगच्छका उज्वल इतिहास यह केवल जैनसंघ के इतिहासका ही एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण नहीं है, बल्कि समग्र राजपुताने के इतिहासका एक विशिष्ट प्रकरण है ।" ऐसे महाप्रभाविक आचार्योंको झूठा और निन्हव, कहना बुद्धिका दीवालियापन व जंगलीपन नहीं तो और क्या है ?
तपागच्छनायक श्रीविजयदानसूरिजीने धर्मसागर उपाध्यायको इसही लिए गच्छ बाहर किया था कि उसने अन्य गच्छीयोंको निन्हव कहा था, श्रीहीर विजयसूरिजी ने जो बारह बोल निकाले थे + उसमें आठवां बोल यह है कि 'शास्त्रों में सात ही निन्हव कहे हैं उनके अतिरिक्त जो अन्य गच्छीयों को निन्हव कहे उसमें समकित नहीं रहता ।'
इससे सिद्ध है इन बोलसंग्रहों के लेखक अनुवादक व प्रस्तावक यह तीनों ही समकित रहित व गुरुद्रोही हैं । लोकमत प्रायः चंचल होता है, लोग प्रवाह में आ जाते हैं इसलिए इन बोलोंका उत्तर छपना आवश्यक समझा गया, इन बोलों की सारी सत्य हकीकत शुद्ध x खरतर गच्छ पट्टावली संग्रह पृ० ग जैन ऐतिहासिक रास संग्रह भाग ४
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पृ० १४
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