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प्रस्तावना वि. सं. २००७ में श्री विजयप्रेमसूरिके शिष्य श्रीजंबूसूरिने सत्तरहवीं सदीके दो बोलसंग्रहों का मूल और उसका गुजराती अनुवाद प्रकाशित करवाया, प्रथम बोलसंग्रहमें १४१ व दूसरे में १६१ बोल हैं, दोनोंमें प्रायः वेही बातें हैं दोनों बोल संग्रहोंकी भाषा अशिष्ट और द्वेषमूलक हैं।
अपने आचारका-समाचारीका समर्थन करना एक बात है परंतु येनकेन प्रकारेण उसका औचित्य सिद्ध करना व दूसरोंके सिद्धान्तोंका खंडन करना भी किसी हद तक क्षम्य हो सकता है किन्तु दूसरों के लिये यह लिखना कि 'खरतर जुठा छे, शस्त्ररहित के, निन्हव मांहि छे, सूत्र उलंघे छे,' यह जंगलीपन नहीं तो और क्या है ? दोनों ही बोलसंग्रहके लेखकोंने अपना नाम नहीं दिया है, लेखक लिखता है कि-" अत्र तो एता बोल काई दीठा, कोई सांभल्या पणि लख्या छे...कोई बोल अधिका ओछा पणि लिख्या होय ते पं. श्री मेरूबिजय गणि आगे वांचियो." इस लेखसे स्पष्ट है कि लेखक कोई अधिकारी विद्वान नहीं था ऐसे अनधिकारी गुमनाम लेखककी पुस्तक प्रकाशित करके तथा अपनी द्वेषपूर्ण टिप्पणियां लिखकर जंबू सूरिने अपनी आगमप्रज्ञताका खोखलापन ही सिद्ध किया है।
प्रस्तावनामें ले सकने भी अपनी जिम्मेदारी नहीं समझी और असभ्य शब्दोंका प्रयोग करके इस पुस्तकको पूर्णतया द्वेषमय बना दिया है।
जैन इतिहासका एक सामान्य अभ्यासी भी यह भलीभांति जानता है कि अन्य लोगोंको जैन बनाकर जैन धर्मकी जितनी सेवा खरतर गच्छीय आचार्योंनेकी है उतनी किसी भी गच्छके प्राचार्योने नहीं की, इसही लिये स्थान. २ पर लोगोंने उन महापुरुषोंके चरणों की प्रतिष्ठा कराके 'दादाबाड़ीये' बनवाई हैं, तीर्थाधिराज श@जय पर 'विमलवसहि' में भी उनकी चरण उनका यशोगान कर रहे हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com