________________
हृदय सरल चित्त श्रीजयसोम उपाध्यायजी ने अपने ग्रन्थकी आदि में ही दे दी है । उत्तर देने का आशयभी कितना शुद्ध है, पाठक ! उनका भी नमूना देखिए 'हमारी मति विपक्षियोंकी समाचारी दृषित करनेकी नहीं है किन्तु उनके लगाये हुए दूषणोंको विच्छेद करने की है' अर्थात् आक्रमण करनेका भाव नहीं है, अपनी रक्ष का प्रयत्न मात्र है, यही वीरता और शान्तिप्रियता है, प्रत्येक उत्तर में उनकी अगाध विद्वत्ता टपकती है । तपोमूर्ति श्रीबुद्धिमुनिजी ने भी लेख के पद चिन्हों का अनुसरण करके अनुवादका कर्तब्य पालन किया है।
इस समय श्वेताम्बर मूर्ति पूजक संघमें मुख्यतया दो ही गच्छोंके अनुयायी है, इन दोनोंकी फूटमें संघकी हानि व सहिष्णुतामें जैन श्वेताम्बर मूर्ति पूजक संघकी उन्नति निहित है, समाजको चाहिये कि ऐसे कदाग्रही गच्छवादी साधुओंके प्रभावमें आकर अपने द्रव्य व शक्तिको दुरुपयोग न करें, ऐसे लोगोंका जमाना लद चुका है तो भी जैन प्रजा इनके प्रपंच में फँसहीजाती है।
धर्म वीतरागतामें है, रागद्वेषके त्यागमें है, जो मनुष्य हमें रागद्वेषसे विमुख करे वही पूज्य है, जो रागद्वेषकी ओर अग्रसर करे वह आदरणीय नहीं हो सकता, कसोटी पर कस कर जैन प्रजा को आचार्य उपाध्याय साधु व पुस्तकोंकी परिक्षा करनी चाहिये । गच्छ रागमें धर्म नहीं है गच्छ सहिष्णुतामें ही धर्म हैं । ।
आजकलका . मानस विविधतामें एकता, भेद भावमें समन्वय खोजता है, जैन कवियोंमें भानन्दघनजी महाराजकी कविता पर लोग इस ही लिए मुग्ध हैं कि वे अनेकतामें एकताकी झांकी करते हैं। उस महापुरुषने क्या ही उदात्त भाव प्रदर्शित किये हैं । षट दर्शन जिन अंग भणीजे, न्यास षडंग जे साधे रे । नमि जिनवरना चरण उपासक, षड दर्शन आराधे रे ॥
अर्थात् भगवान नमिनाथका चरण उपासक एक जैन व्यक्ति केवल जैन दर्शन ही क्या ? सारव्य वेदान्त बौद्ध आदि छओं दर्शनों
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com