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________________ जीका ऐसा कहना है कि-क्षय हो तब पूर्वतिथिको कायम रखना और पूर्व तिथिमें क्षय तिथिकी आराधना की. ऐसा बोलना अगर दोनो तिथियोंको शामिल बोलना; न कि पूर्वतिथिका क्षय करना. और वृद्धिहो तब दोनो तिथिको तिथिही मानना, और आराधना दूसरीमें करना; न कि दोनोमेंसे एक तिथि मुकरर करना (इन्द्र० से) क्यों साहब ! यही बात है न ? इन्द्र०-हां यही है. वकी०-(पंडितजीसे) अब रामविजयजी अपनी इस नई बातकी सिद्धि के लिये औरभी कहते है कि-यह पूर्वतिथिका क्षय और वृद्धिकी प्रवृत्ति जैनसमाजमें; करीब चालीस वर्षसे प्रविष्ट हुई है. तब हमाग कहना है कि सेंकडो वर्षोसें यह प्रथा चलती है. इसके पुरावेमें रा०वि० 'तत्त्वतरंगिणी नामक शास्त्रका स्वमतानुसार जंबुवि० विरचित भाषांतरको पेश करते है, तो हमारा कहना है कि तत्व० का अर्थ रामविजयजी गलत करते है. यहां इन्द्रमलजी साहब, कहते है कि-वे सत्यार्थ करते है. बस हमारी चर्चा भी यही और आजके वादविवादका विषय भी यही है. इस विषयको स्पष्ट करनेवाला यह तत्वतरंगिणी नामक ग्रंथ मेरे पास मोजुद है. और रामवि० के गुरु भाई जंबुवि० ने इसका भाषान्तर जो ( गुजरातिमें ) किया है, वह पुस्तकभी यहां मोजुद है ( दोनोही पंडितजीको देते है और पहले होया हुआ वादविवाद के साथ इन्द्रमलजीका कीयाहुआ अर्थ सुनादेते है. बाद पर्वतिथिप्रकाश पृ. १६ निकालकर पंडितजीको दिखाते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034996
Book TitleParvtithi Prakash Timir Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrailokya
PublisherMotichand Dipchand Thania
Publication Year1943
Total Pages248
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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