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________________ (४३) पंडि०-क्यों वकीलसाहब ! यह क्या मामला है ? वकी०-बात ऐसी है कि हमारे जैनसमाजमें असलसे यह मान्यता चली आती है कि २-५-८-११-१४ अमावा. स्था और पूर्णिमा इन तिथियोंका (धार्मिक आराधनाके कार्यमें) क्षयभी नहीं होता और वृद्धिभी नहीं होती. दूसरी बात यह है कि जैनज्योतिषकी गणनानुसारतो क्षय मात्र छ तिथियोंका, सारेवर्षमें होता है और वृद्धितो कोईभी तिथिकी नहीं ही होती है. इस जैनज्योतिषकी गणत्रीवाला पंचांग अब संपूर्ण नहीं होनेसें लौकिक पंचांग चंडांशुचंडुसेंही काम चलता है. लौकिक पंचांगमें तो तिथियों का क्षयभी ज्याद आता है और क्षयके साथ वृद्धिमी आती है अब यहां बात ऐसी है कि लौकिक पंचांगमें पर्वतिथियोंका क्षय और वृद्धि आवे तब जैनसमाजने धर्मक्रिया किस तिथिको करना ? विना तिथिसें तो आराधना होती ही नहीं. अब पर्वतिथिकी वृद्धि हो तब दोनों ही की आगधना करना, और क्षय हो तब उसकी आराधनाकोभी उसके साथ साथ लोप देना या कैसे करना ? इसका निगकरण के लिये पूर्व महापूरूषोंने शास्त्रानुसार नियम बनायें है कि-क्षय हो तब पूर्वतिथिको क्षय पने मानना और वृद्धिमें उत्तरतिथिको उस तिथि पने मानना. इस मुताविक सं.१९९३ तक समस्त जैन आलम मानतीथी. श्रीरामवि० नेभी प्रवचन पत्र वर्ष ६ अंक १२-१३-१४ पृ. १७७ में इस बातको मंजुर भी की है. अब उसी बात को उलटाकर यहां रामविजय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034996
Book TitleParvtithi Prakash Timir Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrailokya
PublisherMotichand Dipchand Thania
Publication Year1943
Total Pages248
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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