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________________ (३५) वकी० - मुझे इसे पढ़ने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि इसके अंदर तो जंबुविजयजीने बहुतही उलटपुलट लिख दिया है. इन्द्र० - यहतो आपका समझ फेर है, क्योंकि भाषांतर कर्त्ता ग्रंथकार व टीकाकारसें विरुद्ध कभी नहीं जा सकता. वकी० - अलबत्ता आप खुद संस्कृतके अभ्यासी है. और जंबुवि० ने कितना गलत भाषांतर किया है यहतो मैं आपहीके मुँह से कबूल करवाउँगा, लेकिन पर्वतिथियोंकी क्षयवृद्धि नहीं करना यह प्रथा चालीस पचास वर्षसें जैनसमाज में प्रविष्ट हुई है, इस बातका पुरावा आप इस पुस्तक मेंसें बतलाईये : ( इन्द्रमलजी पर्व तिथिप्रकाश नामक पुस्तक के पृष्ठ उलेटतें है. बीच में) मगनीरामजी ० - अजी साहब ! ऐसी चर्चा में क्या धरा है ? ऐसी चर्चा में सागरजी माहाराज जैसें समर्थ भी खड़े नहीं रहे, तो अब आप इस झगड़ेका निष्कर्ष अजही निकाल डालोगे क्या ? नहीं नहीं हरगिज नहीं. गुला०- क्या बोलते हो ! सागरजी माहाराज खड़े नहीं रहे कि रामवि० मा० बुखारका बहाना करके सो गये ? अर्थात् श्रीमान् सागरानंदसूरीश्वरजी मा० ने तो ज्योंही जीवाभाइका तार मिला कि उसी रोज जामनगरसें विहार किया, और जहां श्री सागरानंदसूरीश्वरजीके विहारका तार मिला कि रामवि० को तो १०५ डिक्री बुखार हो आया ! और आचार्य महाराज, ने जामनगर सें विहार किया वेतो सामने खड़े ही नहीं रहे और पुनाके उपाश्रय से नीचेही नहीं उतरने वाले राम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034996
Book TitleParvtithi Prakash Timir Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrailokya
PublisherMotichand Dipchand Thania
Publication Year1943
Total Pages248
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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