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________________ (३६) वि० चर्चा में खड़े रहेथे ! वाहजी!! वाह !!! आपकी बुद्धि कोमी धन्य है. सं. १९९६ के महा और फाल्गुन मासमेंभी श्रीपालीताणामें श्रीसागरजी महाराजके साधुओंने श्रीजंबुवि० को शास्त्रार्थका निमंत्रण दियाथा, तबभी एक मतवा तो चुपचाप विहार कर गये व, दूसरीबार आये जबभी ऊनको चर्चाके लीये चेलेंज दी. तब कुछ पत्रव्यवहार किया, उसमें भी जहां शास्त्रार्थका मोका आया तबभी वही पलायन यह बात तो जगजाहिर ही है. तिथिच. चर्चामें पलायनका पहला नंबर रामवि० का और दूसरा तीसरा नंबर जं० वि० का प्रसिद्धही है. (इतनेमें) वकी०-(इन्द्र० से) आपने वह पुरावा निकाला या नहीं? इन्द्र०-नहीं साहब ! मेरा दिमागतो. इधर उलझ रहाथा. अब देखताहूं. (पुस्तकके पंने इधर उधर लोटाते है) ... वृद्धि०-(वकील सा० सें) येतो खामोखॉही पन्ने उलेटते है, आपतो तत्वतरंगिणी लेकर जं० वि० ने जोभी कुछ उलटपुलट लिखा है, वही दिखलाईये. (इतनेमें) पन्नालालजी०-इनको इसवक्त वह प्रकरण ख्यालमें नहीं आया होगा, इसीसे पन्ने उलेटते है. ये चाहे पमे फिरावें या न फिरावें लेकिन श्रीमान् रामचंद्रमरिजीने बम्बईके लालबाग में व्याख्यानके अंदर सभामध्य फरमायाथा कि-पर्वतिथिकी क्षयवृद्धि नहीं मानना, यह मान्यता चालीस पचास वर्षहीकी है. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034996
Book TitleParvtithi Prakash Timir Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrailokya
PublisherMotichand Dipchand Thania
Publication Year1943
Total Pages248
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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