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निमित्त
यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्य सम्यङ न सा कर्मज्ञानसमुच्चयोपि विहितस्तावन्नकाचित्क्षतिः। किंवत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बंधाय तन्मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुनं स्वतः। ___ अर्थ--जब तक कर्म का उदय है और ज्ञानकी सम्यकविरति नहीं है तब तक कर्म और ज्ञान दोनों का इकट्ठापन भी कहा गया है तब तक इसमें कुछ हानि भी नहीं है। यहां पर यह विशेषता है कि इस आत्मा में कर्म के उदय की जबर्दस्ती से प्रात्मा के वश के बिना कर्मका उदय होता है वह तो बन्ध के लिये ही है और मोक्ष के लिये तो एक परमज्ञान ही है, वह ज्ञान कर्म से आप ही रहित है । कर्म के करने में अपने स्वामीपने रूप कर्ता पने का भाव नहीं है । इससे सिद्ध होता है कि क्षयोपशम भाव मिश्र रूप ही है।
प्रश्न--क्रमबद्ध पर्याय किसे कहते हैं ?
उत्तर--जिस काल में जैसी अवस्था होने वाली है ऐसी अवस्था होना, उसे क्रमबद्ध पर्याय कहते हैं ।
प्रश्न--क्या सभी जीवों को क्रमबद्ध पर्याय ही होतीहै?
उत्तर--सभी संसारी जीवों की क्रमबद्ध पर्याय नहीं होती है, परन्तु अक्रम पर्याय भी होती है । जैसे समय २
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