________________
२०]
निमित्त
वत्थु पडुच्च जं पुरण अज्झत्राणं तु होइ जीवाणं । ण य वत्थुदो दु बंधो अज्झत्रसाणेण बंधोत्थि ॥
अर्थ -- जीवों के जो भाव हैं वह वस्तु को अवलम्बन करके होता है तथा वस्तु से बंध नहीं है, भाव करि बंध होता है । यहाँ भाव उदीरणा दिखलाई है ।
समयसार कलशा नं० १५१ में भी भाव उदीरणा का कथन किया है " है ज्ञानी ! तुझको कुछ भी कर्म कभी नहीं करना योग्य है तो भी तू कहता है कि पर द्रव्य तो मेरा कदाचित् भी नहीं है और में परद्रव्य को भोगता हूँ । तव आचार्य कहते हैं कि बडा खेद है जो तेरा नहीं उसे तू भोगता है ? इस तरह से तो तू खोटा खाने वाला है । हे भाई ! जो तू कहे कि परद्रव्य के उपभोग से बन्ध नहीं होता है ऐसा सिद्धान्त में कहा है, इसलिये भोगता हूँ, उस जीव को क्या तेरे भोगने की इच्छा है ? तू ज्ञान रूप हुआ अपने स्वरूप में निवास करे तो बन्ध नहीं और जो भोगने की इच्छा करेगा तो तू आप अपराधी हुआ । तब अपने अपराध से नियम से बन्ध को प्राप्त होगा ।" यह कथन भाव उदीरणा का ही है । निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध में अर्थात् श्रदयिक भाव में कर्म के
साथ में आत्मा का एक क्षेत्र में बन्ध-बन्धक सम्बन्ध है,
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com