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निमित्त शुभ परिणाम द्रव्य पुण्य का कारण है । पुण्य प्रकृति के योग्य वर्गणा तब ही होती है जब कि शुभ परिणाम का निमित्त मिलता है । इसी कारण प्रथम ही भाव पूर्ण होता है तत्पश्चात् द्रव्य पुण्य होता है । इससे भी सिद्ध होता है कि प्रथम निमित्त में ही अवस्था होती है, तद्पश्चान् नैमित्तिक की निमित्त के अनुकूल ही अवस्था होती है । यद्यपि इसमें समय भेद नहीं है, तथापि कारण कार्य भेद है। निमित्त कारण है और नैमित्तिक अवस्था कार्य है । समयसार गाथा ६८ की टीका में लिखा है कि-- "कारणानुविधायीनि कार्याणीति कृत्वा यवपूर्वका यवा यवा एवेति न्यायेन पुद्गल एव न तु जीवः।" अर्थ-जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है ! जैसे जौ से जौ ही पैदा होता है अन्य नहीं होता है इत्यादि ।
समयसार कर्ता कर्म अधिकार गाथा १३०-१३१ में लिखा है कि--
"यथा खलु पुद्गलस्य स्वयं परिणामस्वभावत्वे सत्यपि कारणानुविधायित्वात्कार्याणा इति"
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