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नागरी प्रचारिणी पत्रिका
वह तो था ही; संगीत के आवेश में जो अभिनय, उछल-कूद, लपक-झपक, बक-झक प्रादि उपद्रव होते थे उनसे उल्लास का रंग और भी चोखा हो जाता था और उसी को लोग देवता का प्रसाद समझने लग जाते थे । नाट्यों की अधिकता एवं भावों के प्रबल उद्रेक के कारण नबियों को मूर्छा आ जाती थी । इस दशा में जो कुछ उनके मुँह से निकल पड़ता था वही इलहाम होता था । उनकी चेतना देवता की चेतना समझी जाती थी । आज भी बहुत सी अशिक्षित जातियों में इस हाल और इलहाम का दर्शन हो जाता है और हम उनके पात्रों को 'दर्शनियों' के रूप में पाते हैं 1
एक ओर से तो नबियों का यह उल्लास काम कर रहा था और दूसरी ओर से यहा के कट्टर सिपाहियों का विरोध चल रहा था । विरोध एवं विध्वंस के कारण बाल, कदेश एवं ईस्टर प्रभृति देवी-देवताओं की मर्यादा भंग हो गई और उनके विवाहित व्यक्तियों को या तो उन पर अश्रद्धा हो जाने के कारण उनको तिलांजलि दे यहा के संघ में भर्ती होना पड़ा या उनके वियोग में उनकी अमूर्त्त सत्ता का मूर्त्त के आधार पर विरह जगाना पड़ा । शामी जातियों में मूर्त्तियों के चुंबन, आलिंगन आदि की जो व्यवस्था थी वह मूर्त्तियों के साथ प्रत्यक्ष रूप में तो नष्ट हो गई, पर परोक्ष रूप से वही आज तक सूफियों के बोसे और वस्ल में बदस्तूर बनी है । आज भी मक्का के संग प्रसवद के चुंबन तथा हज के अन्य विधानों में उसकी झलक स्पष्ट दिखाई देती है ।
उपर्युक्त समीक्षण के सिंहावलोकन में हम भली भाँति कह सकते हैं कि सूफीमत के सर्वस्व मादन-भाव का मूल स्रोत वही गुह्य मंडली है जिसमें कहीं सुरा सेवन हो रहा है, कहीं राग अलापा जा रहा है, कहीं उछल-कूद मची है, कहीं कोई तान छिड़ी है, कहीं गला फाड़ा जा रहा है, कहीं स्वाँग रचा जा
रहा है, कहीं हाल
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