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तसव्वुफ अथवा सूफीमत का क्रमिक विकास ४५१ देवता पर चढ़ा दे और उसके आनंद के लिये उसका विवाह भी उसी संतान से कर दे। __ इतना तो स्पष्ट ही है कि विवाह से रति की बाढ़ सीमित हो जाती है। प्रणय का अर्थ प्रेम नहीं, रति की मर्यादा को निश्चित करना है। प्रणय की प्रतिष्ठा हो जाने पर रति का क्षेत्र निर्धारित हो जाता है। रति के क्षेत्र के निर्धारित हो जाने से प्रेम का परिमार्जन प्रारंभ होता है। परिमार्जन से प्रेम को परम प्रेम की पदवी प्राप्त होती है। यदि यह ठीक है तो समर्पित संतान की कामवासना के परिमार्जन में ही सूफियों का परम प्रेम छिपा है ।
उपनिषदों में स्पष्ट कहा गया है कि प्रजाति और प्रानंद का एकायन उपस्थ है । परम पुरुष ने रमणरे की कामना से द्विधा फिर बहुधा रूप धारण किया। रमण के लिये ही रमणी का सृजन किया। ऋषियों ने देखा कि उपस्थ में प्रजाति और रति का विधान तो है पर उसमें अमृत मौर शाश्वत आनंद कहाँ है ? संतान भी मर्त्य होती है और प्रानंद भी क्षणिक होता है। प्रस्तु, सहजानंद में तो शाश्वत प्रानंद नहीं मिल सकता। शाश्वत मानंद तो तभी में भी इस प्रथा का पता बताई। भवानी को संतान का चड़ाना यपि गाखी साहो गया है तथापि प्रथम फज को लोग स्वपं नहीं खाते, किसी मंत फकीर को दे देते हैं। दर में देवदासियां अभी मिलती है और बहुत से योग भाज भी दिखाई पड़ते हैं जिनको उनके माता-पिता ने किसी साधु को दे दिया और फिर पड़ा होने पर उससे मोल ले लिया था, साधु हो जाने दिया। प्रणय की भी कुछ यही दशा है। स एवं वापी तक का विवाह
मा देते हैं। शामी बातियों में विशेषता यह थी कि समर्पित संतान परस्पर देव-रूप में सभोग करना साधु समझती थी, उसको प्रतीक के रूप में प्राण नहीं करती थीं।
(.) . मा. वि. प. च. या.", वृ. भा. च. भ. पं. वा. १७ . उ. भू. १०२.भ.३, की. वा. प्र. ..।
(२) .पा. प्र. भ. प. वा. ३।
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