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________________ ४३८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका ही व्यंग्यार्थ संभव हुआ है। और तोसरे उदाहरण में प्रकरण और बोधव्य (श्रोता ) दोनों की विशेषता व्यंजना का हेतु हो गई है। रजनीगंधा के खिलने आदि की बात सुनकर कोई भी सहृदय काल-वैशिष्टय से पहली वाच्यसंभवा व्यंजना अवश्य समझ लेगा, अर्थात् निशीथ वेला की प्रतीति उसे हो जायगी । पर इस व्यंग्य से उत्पन्न दूसरे व्यंग्य को प्रकरण और बोधव्य के ज्ञान द्वारा ही कोई समझ सकता है। कैदीवाले प्रकरण को जानना इस व्यंजना के लिये आवश्यक है। उपर्युक्त इन सभी बातों का विचार कर प्राचार्यों ने प्रार्थी व्यंजना अर्थ के उस व्यापार को माना है जो वक्ता, बोधव्य (ोता), काकु, वाक्य, वाच्य अर्थ, अन्य सन्निधि, प्रस्ताव, देश, काल आदि के वैशिष्टय ( अर्थात् विशेषता ) के कारण मर्मज्ञ प्रतिभाशाली सहृदय व्यक्ति को दूसरे अर्थ की अर्थात् (अभिधा और लक्षणा द्वारा न जाने हुए ) व्यंग्यार्थ की प्रतीति कराता है । वक्ता, श्रोता ( बोधव्य ) और प्रकरण का अर्थ ऊपर स्पष्ट हो चुका है। काकु स्वर-विकार को कहते हैं। स्वर का अर्थ यहाँ वैदिक पद-स्वर नहीं है। स्वर का सामान्य अर्थ 'आवाज' अथवा ध्वनि ही यहाँ अभिप्रेत है। एक ही वाक्य का स्वर बदल बदलकर पढ़ने से अर्थ दूसरा दूसरा हो जाया करता है। मैं दोषो हूँ। साधारण स्वर से कहने पर यह वाक्य साधारण अर्थ देता है; पर थोड़े सुर से 'मैं' पर थोड़ा बल देकर पढ़ने से इसका उलटा अर्थ निकलता है। उसी वाक्य से निरपराध होने की व्यंजना (१) देखो-वक्त बोधव्यकाकूनां वाक्यवाच्यान्यसविधेः । प्रवावदेशकालादेवैशिष्टयारप्रतिभाजुषाम् । योऽर्थस्यान्यायधीहेतुापारो व्यक्तिरेव सा॥ (का.प्र.३।२१-२१) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034975
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamsundardas
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1936
Total Pages134
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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