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द्विगर्त (डुगर ) देश के कवि
३६५ भावार्थ-राजा घुमंडचंद ( कटोच ), मित्र के पत्र को पढ़कर, वृजराजदेव से प्रा मिले और जयदेव को माथा नवाकर बैठ गए।
सवैया दे पुनि राज घुमंड को तूठी किसान ज्यों धान उषारि लगाइ के। जीति जलंधर को वृजरान चल्यो घर को यशखंभ गड़ाइ के॥ सोहत शान समेत निशान जो फेर घरे हैं नदौन भुलाइ के। भूपत वे अपने घरहूँन को कीने बिदा सब देहरे आइ के ॥ ४६॥ ___ भावार्थ-फिर घुमंडचंद को राज्य दे दिया, मानो किसान ने उखाड़े हुए धान फिर से लगाए हैं। इस तरह जा घर का देश जीतकर और यश के खंभ गाड़कर वृजराजदेव घर को चले। वह निशान फिर नादौन में भूखने लगे और सब ( कांगड़ा देश व जालंधर प्रांत के ) राजे मुकाम देहरा से विदा कर दिए गए।
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