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तसव्वुफ अथवा सूफीमत का क्रमिक विकास
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अपना रूप दिया, उसमें अपनी रूह फूँकी । हदीस है कि जो अपनी रूह को जानता है वह ईश्वर को जानता है । वस्तुत: रूह अंश और ईश्वर अंशी है । अतएव सूफियों का अनलहक इसलाम के प्रतिकूल नहीं है । स्वयं मुहम्मद साहब रसूल होने के पहले ' सूफी थे । सूफियों को सचमुच इलहाम होता है । रसूल एवं सूफी का प्रधान अंतर यह है कि जहाँ सूफीत्व का अंत है वहाँ दूतत्व का प्रारंभ होता है । गजाली वाद-विवाद को व्यर्थ समझता था । उसकी दृष्टि में सत्संग, स्वाध्याय, अभ्यास एवं नियम का पालन ही यथेष्ट था । तर्क-वितर्क तथा कलाम से उसकी विशेष प्रेम न था, यद्यपि वह 'हुब्जतुल इसलाम' की उपाधि से विभूषित था । कलाम और नीति के विषय में उसने जो कुछ कहा उसका स्वागत तो इसलाम ने किया ही; पर उसके उस अंग को उसने अपना आधार ही बना लिया जो 'चक्ल' की धज्जियाँ बड़ा, 'नक्ल' की संरक्षा करते हुए, 'कश्फ' का निरूपण करता है ।
इमाम गजाली की कृपा से तसव्वुफ की प्रतिष्ठा स्थिर हो गई । उसको इसलाम की पक्की सनद मिली । जुनैद के काम को इमाम गजाली ने खूबी के साथ पूरा कर दिया । गजाली के उपरति तसव्वुफ में जिली, अरबी, रूमी प्रभृति सूफियों ने जो योग दिया उसके संबंध में कुछ कहने की जरूरत नहीं। वस्तु नहीं जिसका विकास रुक जाय । गतिशील रहा । उसके द्वार भावों तथा लिये सदैव खुले रहे। जिसके जी में जब उसकी रौनक बढ़ाए । निदान हम उसके यहाँ पर केवल उस दृष्टि से कर रहे हैं कि स्थित रूप मिल गया । उसे अपने किसी अंग को पूरा नहीं करना
सूफीमत कोई ऐसी तसव्वुफ का प्रवाह सदा विचारों के स्वागत के आए उसमें दाखिल हो विकास का उपसंहार अब उसको एक व्यब
( १ ) The Idea of Personality in Sufism p. 44.
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