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तसव्वुफ अथवा सूफीमत का क्रमिक विकास ५०६ के संग्राम में जो मतमेद उठ पड़े थे उनका संघटन अनिवार्य था। तसव्वुफ के लिये इसलाम और इसलाम के लिये तसव्वुफ का विरोध हितकर न था। लोग प्रयत्नशील भी होते तो किसी एक ही पक्ष में फंस जाते थे। अनुभवी सूफी एवं विचक्षण पंडित न जाने कितने हुए पर किसी को तसव्वुफ और इसलाम के समन्वय का यश न मिला। सूफी जनता का मन मोहने में सफल हो रहे बे, उनका संघटन भी हो गया था, उनका साहित्य भी बढ़ रहा था, उनकी पूजा भी चल पड़ी थी, उनके मठ भी बन गए थे; सभी कुछ उनके पक्ष में था तो सही, किंतु उनको प्राणदंड का खटका भी बराबर लगा रहता था। किसी समय जिंदीक की उपाधि दे सनकी दुर्गति की जा सकती थी। इसलाम की अवहेलना उनको इष्ट न थी। इसलाम भी तसव्वुफ के बिना उजाड़ था। सामग्री सब उपलब्ध थी। कमी केवल एक ऐसे व्यक्ति की थी जिसमें दोनों का विश्वास हो, जिसे दोनों जानते-मानते हो, जिसमें दोनों एक में दो और दो में एक हो सकें। संयोगवश इसलाम में एक ऐसे ही महानुभाव का उदय हुप्रा। उसके प्रकाश में प्रापस का वैमनस्य नष्ट हो गया। उसने सिद्ध किया कि वसव्वुफ इसलाम का जीवन और इसलाम तसव्वुफ का सहायक है। उसकी धाक इसलाम में पहले ही से जम चुकी थी। लोग सुनना भी यही चाहते थे। फिर क्या था, तसव्वुफ को इसलाम की सनद मिली। उसका व्यवसाय इसलाम में खुलकर होने लगा। वसन्वुफ इसलाम का दर्शन और साहित्य का रामरस हो गया। प्रेम के वियोगी और परमात्मा के विरही भातुर व्यक्तियों का शरण्य यह रसायन ही बा जो उनको बार बार मिटाता-बनावा,मारवा-जिलावा महामिसन की ओर अग्रसर करता हुमा प्रद्वैत का अनुभव करा रहा था।
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