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तसव्वुफ अथवा सूफीमत का क्रमिक विकास ४८५ डायोनीसियस ने भक्ति-भावना का प्रतिपादन एवं महामिलन का प्रामास तो दिया, पर उसमें वह मालोक कहाँ जो द्रष्टा और दृश्य को दृष्टि में लय कर आकाश बना दे! यहूदी और मसीही उल्लास को इतना न तपा सके कि वह सबा सुवर्य बनता। इसलाम के परित: व्यवधान में सूफीमत को जो पुटपाक मिला उसी में मादन-भाव का सखा प्रेम-रसायन तैयार हुआ। मादन-भाव के इसी परिपाक में सूफीमत को दार्शनिक रूप मिला। सूफियों की संचित सामग्री को लेकर इसलाम ने उसको किस प्रकार तसव्वुफ का रूप दिया, इसका निदर्शन हम प्रगले प्रकरण में करेंगे। यहाँ तो हमें इतना ही कह कर संतोष करना है कि मुहम्मद साहब ने भावावेश में जो कुछ कहा वह सर्वथा सूफियों के प्रतिकूल न था; उसमें उनके लिये भी कुछ जगह थी। सूफियों ने उन्हीं स्थलों को चुना और उनके प्राधार पर समूचे कुरान पर अपना अधिकार जमा लिया । उनके शील, संतोष, त्याग मादि सद्गुषों ने उनकी सहायता की और वे शाश्वत शाह बन गए।
मादन-भाव ने किस प्रकार मत का रूप धारण कर लिया, इसका कुछ निदर्शन गत प्रकरण में हो गया। अब हमें यह देखना है कि किस प्रकार उसको इसलाम में प्रतिष्ठा मिली और वह सूफीमत के रूप में विख्यात हुमा। सूफीमत का वास्तव में इसलाम से वही संबंध है जो किसी दर्शन का किसी मार्ग से होता है। सूफीमत भी इसलाम की तरह अपनी प्राचीनता का पचपाती है। इसनाम की मांति ही उसके प्रसार में भी कुरान का पूरा हाथ रहा है। कुछ लोगों का तो कहना ही है कि सूफी शब्द की व्युत्पति मदीने के उस चबूतरे से है जिस पर बहुत से संत भाकर पेठवे
(1) Studies in Tasawarif p. 121
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