________________
नागरीप्रचारिणी पत्रिका उनकी लूट-पाट का तो अनुमान ही नहीं लगाया जा सकता । सरस्वती और संस्कृति के केंद्र भी अछूते न छोड़े गए । जब वि० सं० १२५४ (सन् ११६७ ई०) में मुहम्मद-बिन-बख्त्यार ने बिहार की राजधानी पर अधिकार किया तब उसने वहाँ के बृहद् बौद्ध विहार को ध्वंस कर दिया; वहाँ के जिस निवासी को पकड़ पाया, तलवार के घाट उतार दिया और 'रत्नावली' नामक पुस्तक-भवन अग्निशिखाओं को समर्पित कर दिया । केवल बख्यार ही की यह विनाशकारी प्रवृत्ति रही हो, सो बात नहीं। अल-बेरूनी सदृश प्राचीन इतिहास-लेखक भी इस बात का साक्ष्य देता है कि हिंदू विद्या और कलाएँ देश के उन भागो से जिन पर मुसलमानों का अधिकार हो गया था, भागकर उन भागों में चली गई थी जहाँ उनका हाथ अभी नहीं पहुँच पाया थारे ।
जब तक मुसलमान विजेता लूट-पाट करके ही लौट जाते रहे, तभी तक यह बात न रही, जब मुसलमानों को देश में बस जाने की बुद्धिमत्ता का अनुभव होने लगा और वे बाकायदा राज्यों की स्थापना करने लगे तब भी देश की संतान को अधिक से अधिक चूसने की नीति का त्याग नहीं किया गया। जहाँ तक हो सकता था, राज्य की ओर से उनकी जीवन-यात्रा कंटकाकीर्ण बना दी जाती थी। उनके प्राण नहीं लिए जाते थे, यही उनके ऊपर बड़ी भारी कृपा समझी जावी थी। उनको जीवित रहने का भी कोई अधिकार नहीं था। मुसलमान शासक उनका जीवित रहना केवल इसलिये सहन कर लेते थे कि उनको मार डालने से राज्य कर में कमी पड़ जाती और राजकोष खाली पड़ा रह जाता। अपने प्राणों का भी उन्हें एक
(१) रेव--संपादित 'तबकाते नासिरी', भाग १, पृ० १५२; ईश्वरीप्रसाद-'मेडीवल इंडिया', पृ० १२० । .(२) देखो पादटिप्पणी 1, पृष्ठ ३ ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com