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नागरीप्रचारिणो पत्रिका के समकालीन थे । इनके समय की प्राचीनता के कारण विद्वानों को इसमें संदेह होता है। परंतु सं० १५०५ ( ई० १४४८ ) में कबीर की मृत्यु मानने से इस संदेह के लिये जगह नहीं रह जाती। उल्मा लोग भी इसी संवत् को मानते हैं।
माँनुमेंटल ऐंटिक्विटीज़ आँव दि नॉर्थ वेस्टर्न प्रॉविंसेज़ के लेखक डाक्टर फ्यूरी के अनुसार संवत् १५०७ (१४५० ई०) में नवाब बिजलीखाँ पठान ने कबीर की कबर के ऊपर रौजा बनवाया था जिसका जीर्णोद्धार संवत १६२४ (१५६७ ई०) में नवाब फिदाईखाँ ने करवाया। इससे भी इस मत की पुष्टि होती है। परंतु खेद है कि डाक्टर फ्यूर ने अपने प्रमाणों का उल्लेख नहीं किया।
जान पड़ता है कि कबीर विवाहित थे। उनकी कविता में स्थान स्थान पर 'लोई' शब्द आया है जिससे अनुमान किया जाता है कि लोई उनकी स्त्री का नाम है जिसे संबोधित कर ये कविताएँ कही गई है। परंतु अधिक स्थानों पर लोई 'लोग' के अर्थ में आया है और 'लोक' का अपभ्रंश रूप है। हाँ, आदियय में दो स्थल ऐसे हैं, जिनमें 'लोई' खो-वाचक हो सकता है। आदि ग्रंथ में एक पद ऐसा भी है जिससे ऐसा प्रतीत होता है जैसे कबीर का विवाह धनिया नामक युवती से हुआ हो जिसका नाम बदलकर उसने राम
(१) कहते हैं कि कबीर कुछ दिन तक झूसी में शेख तकी के पास रहे थे। खाने-पीने के संबंध में सरकार का अभाव देखकर जब कबोर कुड़बुड़ाये तब शेखजी ने उन्हें शाप दे दिया जिससे वे छः मास तक संग्रहणी से ग्रस्त रहे । अब तक झूसी में एक कबीर नाला है। कहते हैं कि उन दिनां कबीर जिस नाले में जाया करते थे, वह यही था । (२) कहतु कबीर सुनहु रे लाई । अब तुमरी परतीत न होई ॥
-ग्रंथ, पृ. २६२। सुनि अँधली लोई बे पोर । इन मुंडियन भजि सरन कबीर ॥
--क० ग्रं० २१६, १०६ ।
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