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नागरीप्रचारिणी पत्रिका रूप मदिरा से मत्त थे। हम कहते कहते थक गए [ परंतु लोग यह भेद ही नहीं समझ पाते] ।
क्या आश्चर्य कि कबीर इस पद में रामानंद को साक्षात् हरि बना रहे हो ? गुरु तो उनके मतानुसार परमात्मा होता ही है। रामानंदी संप्रदाय में तो रामानंद राम के अवतार माने ही जाते हैं, नाभाजी ने भी उनको कुछ ऐसा ही माना है
श्रीरामानंद रघुनाथ ज्यों दुतिय सेतु जग-तरन किया। कबीर का 'आपन अस किए बहुतेरा' और नाभाजी का 'दुतिय सेतु जग-तरन कियो' अगर एक साथ पढ़े जायँ तो मालूम होगा कि दोनों रामानंद के संबंध में एक ही बात कह रहे हैं।
कबीर-ग्रंथावली के एक पद में कबीर ने परमात्मा के सम्मुख परमतत्त्व-रुप, सुख के दाता, अपने साधु-र रु की खूब प्रशंसा की है, जिसमें सच्चे र.रु के गुण पूरी मात्रा में विद्यमान थे, जिसने हरि-रूप रस को छिड़ककर कामाग्नि से उसे बचा लिया था और पाषंड के किवाड़ खोलकर उसे संसार-सागर से तार दिया था
राम ! मोहि सतगुर मिले अनेक कलानिधि, परम-तत्व सुखदाई । काम-अगिनि तन जरत रही है, हरि-सि विरकि बुझाई ॥ दरस-परस तैं दुरमति नासी, दीन रवि ल्यो पाई। पाषंड भरम-कपाट खोलिक, अनभै कथा सुनाई ॥ यहु संसार गंभीर अधिक जल, को गहि ल्यावै तीरा ।
नाव जहाज खेवड्या साधू, उतरे दास कबीरा ॥ ये सब बातें रामानंद पर ठीक उतरती हैं। उस समय मध्यदेश में वही एक साधु था जिसने पाषंड के दरवाजे खोल डाले।
ग्रंथ साहब में कबीर का एक पद है जिसमें उन्होंने कहा है कि मैंने अपने घर के देवताओं और पितरों की बात को छोड़कर गुरु . ( )क० प्र०, पृ० १५२, ११०।
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