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भारतीय कला में गंगा और यमुना ५०३ गंगा की मूर्ति-कला का जन्म हुमा'। परंतु यह सिद्धांत संदेहरहित नहीं ज्ञात होता।
विष्णुधर्मोत्तर के वर्णन से स्पष्ट प्रकट होता है कि वरुणदेव के साथ गंगा तथा यमुना की मूर्ति निर्मित होती थी। यद्यपि ऐसी हिंदू मूर्तियाँ उपलब्ध नहीं होती, परंतु पूर्वोक्त वर्णन के अनुसार संभवत: वरुण के साथ गंगा-यमुना की मूर्ति भी बनती होगी। गुप्तकालीन देवगढ़ के दशावतार मंदिर के द्वार के ऊपरी भाग में गंगा की मूर्ति मकर पर तथा यमुना की कूर्म पर, क्रमशः बाई तथा दाहिनी ओर, स्थित हैं३ । इसके विपरीत यची की मूति द्वारपाल के स्थान पर खुदी मिलती है। कालांतर में वरुणदेव की वह महत्ता न रही तथा गंगा और यमुना की मूर्तियाँ स्वतंत्र रूप से गुप्त-मंदिरों के द्वार पर (प्रायः द्वारपाल के स्थान पर ) मिलती हैं। गंगा तथा यमुना के द्वार पर स्थित होने से यह अभिप्राय नहीं निकाला जा सकता कि भरहुत तथा साँची की यक्षियों के सदृश वे द्वाररक्षक या द्वारपाल का कार्य संपादन करती थी; परंतु गुप्तशिल्पकारों का मुख्य ध्येय यह प्रतीत होता है कि द्वार पर दुःख विनाशिनी माता गंगा के स्थित होने से मंदिर में किसी प्रकार की बुरी
आत्मा का प्रवेश नहीं हो सकता। अतएव गंगा तथा यमुना को ( यक्षी की तरह )द्वाररक्षक न मानकर द्वारदेवता कहना उचित होगा। विष्णु के द्वार-देवता जय-विजय के सदृश इनका संबंध शिव से था। भूमरा के शिव मंदिर में द्वार के ऊपरी भाग में शिव की मूर्ति के साथ साथ द्वार-देवता गंगा तथा यमुना की भी मूर्तियाँ
(१) यत, भा० १, पृ० ३३,३९ । (२) विष्णुधर्मोत्तर, अ० १२ ।। (३) कुमारस्वामी-यन, भा॰ २, प्लेट २१, ने.
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