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नागरीप्रचारिणी पत्रिका मित्रों और संबंधियों ने कन्या का आलिंगन कर उसे प्राभूषण भेंट किए। जब मैत्र मुहूर्त में उत्तरा फाल्गुनी और चंद्रमा का योग हुआ तब स्त्रियों ने वधू का उबटन आदि से विवाह प्रतिकर्म प्रारंभ कियारे । इन त्रियों का पतिपुत्रवती होना अनिवार्य था३ । वधू को दूर्वा से सज्जित करके कौशेय परिधान कराया गया। फिर उसने हाथों में एक बाण धारण किया जो शायद क्षत्रिय वधू का परिचायक था। तब उसके शरीर में चंदन का तेल लगाकर उस पर लोध्रचूर्ण छिड़का गया और तदनंतर सुमधुर कालेयक लगाया गया। तब दूसरी धोती धारण कराकर स्त्रियाँ उसे चतुष्क स्नानार्थ (स्नानागार) की ओर ले गई । चतुष्क की मरकतशिला के तल पर मुक्ताओं के प्रयोग से चित्र-रचना की गई थी। वहाँ स्वर्णकलशों द्वारा वधू के अंगों पर स्त्रियों ने जल की धारा छोड़कर उसे स्नान कराया । फिर उस 'मंगलस्नानविशुद्धगात्री' को शुक्लवसना करके पतिव्रताओं ने वितानयुक्त वेदी के मध्य बने एक सुंदर आसन पर बिठाया। इस वेदी के स्तंभ, जो वितान को उठाए हुए थे, स्वर्ण के बने हुए थे और
(.) अङ्काद्ययावङ्कमुदीरितार्थाः सा मण्डनान्मण्डनमन्वभुङ क्त । सम्बन्धिभिन्नोऽपि गिरेः कुलस्य स्नेहस्तदेकायतनं जगाम ॥
-कुमार०, ७,५। (२) मैत्रे मुहूर्ते शशलान्छनेन योगं गतासूत्तरफल्गुनीषु । तस्याः शरीरे प्रतिकर्म चक्र बन्धुस्त्रियो याः पतिपुत्रवत्यः॥
-वही, ७, ६ । (३) वही। (४) वही, ७, । (५) तां लोध्रकल्केन हृताङ्गतैलामाश्यानकालेयकृताङ्गरागाम् । वासो वसानामभिषेकयोग्य नार्यश्चतुष्का भिमुख व्यनैषुः॥
-वही, ७, ९। ( ६ ) वही, ७, १०।
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