SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय ३१ पिछले जीवों में व्यावहारिक रूप में भी कोई भेद नहीं । परमात्मा के सामने मनुष्य मात्र की समता के दृढ़ पोषक स्वामी रामानंद को भी सामाजिक समता का उतना विचार न आया । उन्होंने सामाजिक व्यवहार में भी कुछ सुधार किया सही, किंतु कथानकों में का यह सुधार इतना भर था - दक्षिणी आचार्य खान-पान में छत्राछूत का ही विचार नहीं रखते थे प्रत्युत परदे का भी; या यों कहना चाहिए कि खान-पान में उनके स्पर्शास्पर्श का विचार शरीर - स्पर्श में ही समाप्त न हो जाता था, वे दृष्टि-स्पर्श को भी हेय समझते थे । शूद्र के स्पर्श से ही नहीं, उसकी दृष्टि पड़ने से भी भोजन अपवित्र हो जाता है । स्वामी रामानंदजी ने दृष्टि-स्पर्श से भोजन को अखाद्य नहीं माना। उन्होंने केवल स्वयंपाक के नियम को स्वीकार किया, परदे के नियम को नहीं । कहते हैं कि स्वामीजी को तीर्थयात्रा, प्रचारकार्य इत्यादि के लिये इतना भ्रमण करना पड़ता था कि भोजन में परदे के नियम का पालन करना उनके लिये दुःसाध्य था । कुछ लोगों का कहना है कि श्रीसंप्रदाय से अलग होकर एक नवीन संप्रदाय के प्रवर्तन का यही एकमात्र कारण था । कहते हैं कि एक बार के भ्रमण से लौटने पर उनके स- सांप्रदायिकों ने बिना प्रायश्चित्त किए उनके साथ भोजन करना अस्वीकार कर दिया था । स्वामी रामानंदजी प्रायश्चित्त करने के लिये तैयार न थे, अतएव नवीन पंथ- प्रवर्तन के सिवा समस्या को हल करने का कोई गौरवपूर्ण उपाय न सूझा, जिसके लिये उनके गुरु स्वामी राघवानंद की भी सहमति प्राप्त हो सकती । सामाजिक सुधार - पथ में वे इससे आगे बढ़ ही नहीं सकते थे । खान-पान तथा अन्य सामाजिक व्यवहारों में ब्राह्मण-ब्राह्मणों में भी भेद-भाव था तब कैसे आशा की जा सकती थी कि स्वामी रामानंद शूद्रों और मुसलमानों के संबंध में भी उसे मिटा देते । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034974
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamsundardas
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1935
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy