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नागरीप्रचारिणी पत्रिका लिखे चिह्न कौटिल्य के समय में प्रचलित थे। कौटिल्य ने लिखा है कि लक्षणाध्यक्ष चार भाग ताम्र, १ भाग लोहा, राँगा, सीसा या अशुद्ध सीसा और ११ भाग चाँदी के मिश्रण से चाँदी का रुपया (रूप्यरूपं), पण, अद्धपण, पाद और अष्टभाग पण बनावे (२-१२-२८)। शोहगोरा ताम्रपत्र के चिह्न उस समय की मुद्राओं पर भी अंकित हैं, इसलिये यह सिद्ध होता है कि ये चिह्न कौटिल्य और मौर्य राजाओं के समय में प्रचलित थे। बी वर्ग के १४ सिकों के चिह्नों पर तथा बी-१ के अंतिम ३, और बी-२, बी-३, बी-४ और बी-५ के सिक्कों पर विचार करने से निश्चय होता है कि ई० पू० चतुर्थ शताब्दी के अंत में और तीसरी शताब्दी में, मौर्यकाल में ये ही चिह्नांकित सिक्के चलते थे और पूर्वकाल में इन चाँदी के सिक्कों को कार्षापण कहते थे तथा कौटिल्य काल में इन्हें पण कहते थे । कौटिल्य ने ताम्र के माषक का भी उल्लेख किया है। इन चाँदी के सिकों का विश्लेषण (Analysis) करने पर कौटिल्य के ६८.७५ प्रतिशत के बदले ६८५० प्रतिशत चाँदी का भाग निकला था और दूसरी धातुओं के ३१.२५ प्रतिशत के बदले ३१.५० भाग। इस प्रकार इन रूप्यरूपों की बनावट भी कौटिल्य के लिखे अनुसार ही पाई गई है और इस बात का प्रमाण है कि ये सिक्के चंद्रगप्त मौर्य के काल के हैं। ये सिक्के सारे भारतवर्ष में और सीमांत प्रदेशों में पाए जाते हैं; इसका यही कारण है कि यहाँ सब कहीं मार्यों का राज्य था। डाक्टर स्पूनर ने इन चिह्नों को बौद्धधर्म के चिह्न माना था, पर यह बात और लोगों ने स्वीकार नहीं की। ये चिह्न खासकर बौद्धधर्म के हैं भी नहीं। जिस चिह्न को मेरु अथवा स्तूप माना था वह चंद्रगुप्त के प्रासाद के एक - पाषाण-स्तंभ पर खुदा स्वयं डाक्टर स्पूनर को मिला था। चंद्रगुप्त बौद्ध न था । जायसवालजी ने इसे चंद्रगुप्त का राजाक स्वीकार किया है।
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